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१०६. पत्र : एस॰ ए॰ वझेको[१]

शान्तिनिकेतन
१ जून, १९२५

मैंने आपका ज्ञापन गौरसे पढ़ लिया है। वह बहुत उपयोगी और तर्कपुष्ट है। लेकिन उसमें गलतफहमीकी गुंजाइश भी है। उसका यह अर्थ भी निकल सकता है कि यदि आपके सामने विकल्प रखा जाये तो आप भेदभावको वैधानिक रूप देनेके ही पक्षमें रहेंगे। यों तो मैं यही समझा हूँ कि आप ऐसा कोई विकल्प स्वीकार नहीं करेंगे। किसी सामान्य नियम या प्रणालीको तो आसानीसे बदला जा सकता है, किन्तु विधानसभा द्वारा लिखित कानून बन जानेपर उसे संशोधित करना बड़ा ही कठिन काम होता है। हममें से इने-गिने लोग ही न्यायाधीश बन सकते हैं; लेकिन यदि हमारे पूरे समुदायको वैधानिक व्यवस्थाके जरिये न्यायाधीश बननेके अधिकारसे वंचित कर दिया जाये तो हम उसे कैसे पसन्द कर सकते हैं? प्रस्तावित कानूनी प्रतिबन्धका असर शायद एक भी एशियाईपर नहीं पड़ेगा। फिर भी उसका विरोध तो अवश्य करना चाहिए। यह नीति-सूत्र है कि कानूनी तौरपर कोई प्रतिबन्ध न लगाया जाये और प्रशासनके व्यवहारमें कोई सख्ती न की जाये, बल्कि इसके विपरीत असमानताकी नीतिपर अमल करनेमें प्रशासन ढिलाई बरते। मैं उस रंगमंचके सभी अभिनेताओंको जानता हूँ। स्मट्सका 'फितरतीपन' दुनियामें मशहूर है, फिर भी हर्टजोग या बेयर या केसवेलकी अपेक्षा उनकी दृष्टि अधिक न्यायपूर्ण है। मैं तो यह सब केवल इसलिए कर रहा हूँ कि इससे आपको अपनी बात और अधिक स्पष्ट रखनेमें मदद मिल सकती है। फिर भी यदि आपका यही मत हो कि यदि भेदभाव किया ही जाना है तो उसे ठोस कानूनी शक्ल देना जरूरी है, तो फिर मुझे कुछ कहना नहीं है। उस परिस्थिति में हमारा परस्पर मतभेद रहा। भेदभावके मामलेमें आस्ट्रेलिया चरमसीमापर है, पर वहाँ भी राजनीतिज्ञ लोग वैधानिक संशोधनका सहारा लिये बिना ही जब चाहें विवेकशील ढंगसे व्यवहार करना शुरू कर सकते हैं।

हृदयसे आपका,
मो॰ क॰ गांधी

[अंग्रेजीसे]

महादेव देसाईकी हस्तलिखित डायरीसे।

सौजन्य : नारायण देसाई

  1. इम्पीरियल सिटिजनशिप एसोसिएशन (साम्राज्यीय नागरिक संघ) के मन्त्री, भारत सेवक समाज (सर्वेट्स ऑफ इंडिया सोसाइटी) के सदस्य और प्रवासी भारतीयोंके हितमें काम करनेवाले एक प्रमुख कार्यकर्ता।