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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

लिए, उसे एक सार्वजनिक ट्रस्टका रूप दे दिया गया है। मेरे सामने ट्रस्टका दस्तावेज और उसके आय-व्ययका लेखा मौजूद है। मैं इन बातोंका जिक्र यहाँ इसलिए करता हूँ कि मैंने पबनाकी एक सभामें एक सज्जनसे वादा किया था कि मैं 'यंग इंडिया' में प्रतिष्ठानके कामका जिक्र करूँगा। खादी-प्रतिष्ठानके चरखेको मैंने बंगालमें प्राप्य चरखोंमें सर्वोत्तम पाया है और इसलिए उसे समूचे बंगालके लिए उपयुक्त बताया है। उसमें सुधार करनेकी कोशिश भी की जा रही है। एक महाशयने खादी-प्रतिष्ठानकी खादीके महँगे होनेकी शिकायत की थी। मैंने उनसे वादा किया था कि मैं इस शिकायतकी निस्बत 'यंग इंडिया' में लिखूँगा। एक अर्थमें यह इल्जाम सही कहा जा सकता है। खयाल यह है कि खादी बड़से-बड़े पैमानेपर तैयार हो और चरखा प्रत्यक घरमें चले; ट्रस्टके संस्थापकगण खद्दरको स्वावलम्बी और सूतको अच्छी किस्मका बनाना चाहते हैं। इसलिए उन केन्द्रोंमें भी जो खादी-उत्पादनके अनुकूल नहीं हैं, उसी व्यवस्थाके अन्तर्गत काम होना चाहिए। इस प्रकार व्यवस्थापकगण तमाम खादी इकट्ठी करके, औसत निकालकर खादीकी कीमत निश्चित कर सकते हैं। इससे हम इस नतीजेपर पहुँचते हैं कि केवल वे ही लोग खादी-प्रतिष्ठानसे सस्ती खादी बेच सकते हैं जो अनुकूल केन्द्रोंमें काम करते हों। फिलहाल तो खादीकी बिक्रीकी चिन्ता नहीं है; क्योंकि जो-कुछ थोड़े केन्द्र अभी शुद्ध खादी तैयार करते हैं उनके ग्राहक ऐसे बने-बनाये हैं कि जो कीमत आदिकी परवाह नहीं करते। प्रतिष्ठान अब भी घाटा उठाकर खादी बेच रहा है, पर वह घाटेको कमसे-कम करनेकी कोशिश कर रहा है। वह हमेशा ही दानके बलपर नहीं चलाया जा सकता। प्रतिष्ठान द्वारा बेची जानेवाली खादीकी कीमत कम करनेकी कोशिश हर तरहसे की जा रही है, इस बातके बारेमें मैं आश्वस्त हूँ। और यह बात हर शख्स जानता है कि प्रतिष्ठानमें किसीका कोई निजी स्वार्थ नहीं है। उसके मुख्य कार्यकर्त्ता तो रोजी अलगसे कमाते हैं और गाँठका खाकर उसमें काम करते हैं। उन्होंने प्रतिष्ठानको अपना जीवन ही अर्पित कर दिया है। अबतक मैंने खादी-उत्पादनके ५ और सुसंगठित केन्द्रोंका निरीक्षण किया है। वे ये हैं—कोमिल्लामें अभय आश्रम, मलिकन्दामें डॉ॰ प्रफुल्लचन्द्र घोषका आश्रम, चटगाँवमें प्रवर्तक संघका पबनामें सत्संग आश्रम और दुआडंडू खादी केन्द्र। इस आखिरी आश्रमको मैं खुद नहीं देख पाया, पर उसके मुख्य कार्यकर्त्ताओंसे हुगलीमें मिला हूँ, उनकी खादी देखी है और उनके कामका हाल भी सुना है। प्रवर्तक संघ अबतक अर्ध-खादी अर्थात् मिलावटवाली खादी भी तैयार करता रहा है। पर अब जहाँतक चटगाँवका सम्बन्ध है, उसने केवल शुद्ध खादी ही रखनेका निश्चय कर लिया है। कुटियाण्डु नामक जगहमें तो वे प्रयोग शुरू कर ही चुके हैं, परन्तु व्यवस्थापकोंने सारे चटगाँव जिलेके लिए आखिरी निर्णय, मेरी यात्राके समय किया है। उनके कल- कत्ता भण्डारमें तथा मुख्य कार्यालय चन्द्रनगर तथा कलकत्ता-स्थित भण्डारमें अभीतक अर्ध-खादी है। पर वे जितनी जल्दी हो सके इस अर्ध-खादीको समाप्त कर देना चाहते हैं। वे इस सिद्धान्तको कुबूल करते हैं कि अर्ध-खादीसे खादी आन्दोलनको लाभ नहीं होता। ये सब संस्थाएँ अच्छा काम कर रही हैं। कांग्रेसकी संस्थाओंके द्वारा भी