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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

के पीछे लगी रहती थी। क्या आप नहीं जानते कि स्व॰ सर फीरोजशाह मेहता और यहाँतक कि सर सुरेन्द्रनाथ बनर्जीतक पर लांछन लगाये गये हैं? भारतके पितामह——दादाभाई नौरोजी——तक अपवादसे नहीं बचे थे। लन्दनमें एक सज्जनने मुझसे उनके बारेमें ऐसी बातें कहीं और मुझसे अनुरोध किया कि मैं कमसे-कम उनके बारेमें उन महान् देशभक्तके, जिन्हें मैं पूजता था, पास जाऊँ और पूछूँ। मैं बहुत डरते-डरते और काँपते-काँपते उनके पास गया। मैं उनके चरणोंके पास जाकर बैठ गया। मुझे याद है, मैंने उनकी सौम्य मूर्तिकी ओर देखते हुए बड़े संकोचसे पूछा कि जो बात कही गई है वह कहाँतक सही है। उनका दफ्तर ब्रिक्सटनमें एक मकानकी सबसे ऊपरी मंजिलके एक मामूलीसे कमरेमें था। मैं उस दृश्यको कभी नहीं भूलूँगा। मैं जब लौटा तो इस भावको लेकर कि वह आरोप एक बिलकुल ही मिथ्या लांछन था। अली भाइयोंपर भी तो लोगोंने 'स्वार्थ-साधन और विश्वासघात' के आरोप लगाये थे। यदि मैं उनपर विश्वास करता तो मेरा क्या हाल होता? पर मैं तो जानता हूँ कि अलीभाई विश्वासघात और नीतिभ्रष्टतासे परे हैं। अभी जो मतभेद हममें हैं, वे हममें फूट डालनेके लिए काफी हैं। तब फिर हम अपने प्रतिपक्षियोंपर लगाये गये नीचताके निराधार आरोपोंको झट सत्य मानकर उन्हें तीव्रतर क्यों करें? मैं समझता हूँ कि सच्चे मतभेद बिलकुल न्यायोचित ही होते हैं। तब हमें अपने प्रतिपक्षियोंको भी अपने ही समान देशभक्त और सद्भावी मानकर उनका सम्मान करना चाहिए। एक सज्जनने तो, जिन्होंने मुझसे स्वराज्यवादियोंकी नीति-भ्रष्टताकी बात कही थी, मुझसे यह भी कहा कि यह सच होते हुए भी बंगालमें चित्तरंजन दासके सिवा कोई नेता नहीं है। देशमें सेवाके इतने क्षेत्र हैं कि हर शख्सके लिए सेवाकी काफी गुंजाइश है। जहाँ सब लोग सेवा ही करना चाहते हैं तब वहाँ ईर्ष्या-द्वेषको स्थान कैसे हो सकता? मैं तो विश्वास रखनेका कायल हूँ। विश्वाससे विश्वास पैदा होता है। सन्देह एक सड़ी-गली चीज़ है और उससे केवल बदबू ही पैदा होती है। जिसने विश्वास किया है, वह दुनियामें कभी पथभ्रष्ट नहीं हुआ; जबकि सन्देह-ग्रस्त मनुष्य न अपने कामका रहता है और न दुनियाके कामका। अतएव जिन लोगोंने अहिंसाको अपना धर्म माना है वे चेत जायें और अपने प्रतिपक्षियोंको शककी नजरसे न देखें। सन्देह हिंसा ही का सगोत्री है। अहिंसामें तो विश्वास किये बिना काम ही नहीं चलता। सो जबतक पूरा-पूरा सबूत न मिले तबतक मुझे किसीके भी खिलाफ कही हुई बातोंको सच माननेसे इनकार करना ही चाहिए और मेरे सम्मान्य साथियोंके खिलाफ कही गई बातोंको माननेसे तो और भी ज्यादा। पर हरदयाल बाबू कहेंगे, 'तब क्या आप चाहते हैं कि हम अपने देखे सुने सबूतको सच न मानें?' मैं कहता हूँ, हाँ और नहीं। मैं ऐसे लोगोंको भी जानता हूँ जिनकी आँखों और कानोंने उन्हें धोखा दिया है। वे सिर्फ उन्हीं बातोंको देखते और सुनते हैं जिन्हें वे देखना और सुनना चाहते हैं। मैं उनसे कहता हूँ, यदि आपको अपने मतके विपरीत निष्पक्ष प्रमाण मिले तो उस अवस्थामें आप अपनी आँखों और अपने कानोंपर भी विश्वास न करें। फिर भी जिन लोगोंने कोई बात देखी है, सुनी है और जानी है और जो उसकी