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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

विलक्षणताके अभावकी दलील पेश नहीं करते तो चरखेके लिए उसे पेश करनेका तो और भी कम कारण है; क्योंकि सूत कातना राष्ट्रके भरण-पोषणके लिए उतना ही आवश्यक है जितनी आवश्यक किसी व्यक्तिके भरण-पोषणके लिए परीक्षा हो सकती है।

'चीनसे भूमध्य सागरतक'

एक बड़े अच्छे पुराने मुसलमान मित्र मुझे मेमनसिंहमें मिले और हमारी बातचीतमें कुदरती तौरपर खद्दरकी चर्चा चल पड़ी। मैंने कहा कि आपने खादी नहीं पहनी है और फिर विनयके साथ पूछा कि आपका विश्वास खादीमें है या नहीं? उन्होंने कहा, "हाँ, अवश्य है।" तब मैंने उन्हें अपनी खादीकी व्याख्या समझाई। लेकिन उससे कुछ भी फायदा न हुआ। मित्रने पलटकर कहा, "आप समझ सकते हैं, मैं स्वदेशीका संकुचित अर्थ नहीं करता। मेरे लिए चीनसे भूमध्यसागरतक फैले देशोंमें बना कपड़ा खद्दर है।" मैंने उन्हें यह समझानेकी बहुत कोशिश की कि उनका पहला फर्ज हिन्दुस्तानके करोड़ों लोगोंके प्रति है, जिनसे उन्हें अपनी आजीविका प्राप्त होती है। हिन्दुस्तान अपने लिए तमाम कपड़ा तैयार करनेमें समर्थ है और करोड़ों लोग खेतीके साथ कोई सहायक उद्योग न होनेके कारण भूखों मर रहे हैं; किन्तु उनकी समझमें मेरी बात नहीं आई। वे [वर्डस्वर्थकी] लूसीकी तरह पूर्ण आत्म-सन्तोषके साथ अपनी ही बातपर जमे रहे। वे पहले ही से एक खयाल बनाये बैठे थे; इसलिए उनपर किसी भी दलीलका कोई असर न पड़ सका। यदि मैं उनसे यह कहता कि अंग्रेजी उपनिवेशोंके लोगोंने दूसरे उपनिवेशोंसे और इंग्लैंडसे भी, यद्यपि उनमें उन्हींके सजातीय और सहधर्मी रहते थे, अपने व्यापारकी रक्षा बड़े-बड़े कर लगाकर की थी और प्रत्येक मनुष्यका स्वभावतः यह प्रथम कर्त्तव्य है कि वह दूर रहनेवाले मनुष्यकी अपेक्षा अपने पड़ोसी ही की सेवा प्रथम करे तो भी परिणाम वही होता। फिर मुझे अवकाश भी न था। हम फिर मिलनेका निश्चय करके जुदा हुए। उन्होंने मानो अपनी बातपर जोर देनेके लिए और फिर भी यह दिखानेके लिए कि मतभेद होनेपर भी हम लोग मित्र हैं, मुसकराते हुए मेरे कार्यको आगे बढ़ानेके लिए मेरे हाथमें कुछ रुपये रखे; लेकिन वे इस बीच भी चीनसे भूमध्य सागरतक का सूत्र ही दुहराते रहे। यदि उन्हें यह पढ़नेका मौका मिले तो मैं कहना चाहता हूँ कि यदि ज्यादा लोग उनके सिद्धान्तके अनुसार चलें तो कई सहस्र मुसलमान बहनें, जो आज बंगालमें सूत कातकर अपने परिवारकी आमदनीमें कुछ वृद्धि कर लेती हैं, अपने अत्यल्प आय-साधनोंमें यह आवश्यक वृद्धि नहीं कर सकेंगी।

सिन्धकी उदासीनता

एक गुजराती महाशय लिखते हैं, मैंने कराचीमें कुछ गुजराती लोगोंको खादी पहने देखा। वहाँ श्री रणछोड़दासकी देखभालमें स्त्रियोंको कताई सिखानेका भी प्रबन्ध है; परन्तु खुद सिन्धियोंमें खादी नहींके बराबर या बहुत कम खादी देखी। वे यह भी लिखते हैं कि हैदराबादमें इने-गिने कांग्रेसजनोंके सिवा किसी भी सिन्धीके बदनपर खादी दिखाई नहीं देती। यह आश्चर्यकी बात है; क्योंकि सिन्धमें बहुत अच्छे