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भाषण : ईसाई धर्मप्रचारिकाओंके समक्ष

आशा है, तुम स्वस्थ होगे।

खुशालभाई और देवभाभीको दंडवत्।

बापूके आशीर्वाद

गुजराती पत्र (सी॰ डब्ल्यू॰ ६२९२) से।

सौजन्य : नारणदास गांधी

 

११५. भाषण : ईसाई धर्मप्रचारिकाओंके समक्ष[१]

६ जून, १९२५

मैंने आपका निमन्त्रण केवल इसीलिए स्वीकार किया था कि मुझे इससे आपके साथ बातें करनेका और जो बातें आपको समझमें न आती हों उनको समझानेका भी अवसर मिलेगा। देशबन्धु, मैं और दूसरे लोग आज जिस प्रवृत्तिमें तन्मय होकर संलग्न हैं, वह आत्मशुद्धिकी प्रवृत्ति है। इससे मेरा अभिप्राय यह नहीं है कि यह आन्दो- लन राजनीतिक नहीं है। निस्सन्देह यह बहुत हदतक राजनीतिक है। किन्तु राज- नीतिक क्या है और धार्मिक क्या है? क्या जीवनके ऐसे कोई एक-दूसरेसे बिलकुल ही अलग-थलग विभाग किये जा सकते हैं? समस्त प्रवृत्ति एक ही व्यक्ति द्वारा और एक ही स्थानसे संचालित होती है। यदि वह व्यक्ति और वह स्थान स्वच्छ और शुद्ध होंगे तो समूची प्रवृत्ति शुद्ध होगी; किन्तु यदि ये दोनों मलिन हों तो समूची प्रवृत्ति मलिन होगी। प्रवृत्तियोंमें इस प्रकारका भेद करना मुझे हास्यास्पद लगता है, क्योंकि इस सम्बन्धमें मेरा अनुभव भिन्न है। मैंने तो कभी ऐसा भेद किया नहीं। भिन्न-भिन्न दीख पड़नेवाली सभी प्रवृत्तियाँ एक-दूसरेकी पोषक बनकर मधुर जीवन-संगीत उत्पन्न करती हैं। धर्मविहीन राजनीतिसे दुर्गन्ध आती है और राजनीतिसे विच्छिन्न धर्म निरर्थक है। राजनीतिका अर्थ है लोककल्याणसे सम्बन्धित प्रवृत्ति। जो ईश्वरका साक्षात्कार करना चाहता है वह इस प्रवृत्तिके प्रति उदासीन कैसे रह सकता है? और चूँकि मैं ईश्वर और सत्यको एक ही मानता हूँ, इसलिए राजनीतिमें भी सत्यका प्रभुत्व स्थापित करनेकी मेरी इच्छा तो सदा बनी ही रहेगी।

ईसाके अनुयायियोंसे ईसाके ही आदेशको समझनेकी बात कहना तो काशीमें गंगाजल लेकर जानेके समान है। किन्तु स्वयं ईसाई न होनेपर भी, 'बाइबिल' के एक विनीत श्रद्धालु और सद्भावी अभ्यासीके रूपमें, मैंने 'बाइबिलके' "गिरिप्रवचन" में से जो सार निकाला है, उसे मैं आपके सम्मुख नम्रतापूर्वक रखना चाहता हूँ। यदि मैं ऐसा करते हुए अपने हृदयके विचार सचाईके साथ आपके सम्मुख न रखूँ तो मैं आपको भाई और बहिन कहकर सम्बोधित करनेके अयोग्य हूँ। मैंने १९१६ में मद्रासमें पादरियोंके एक सम्मेलनमें भाषण[२]दिया था। इस समय वह मुझे याद आ रहा

२७–१४
  1. यह भाषण दार्जिलिंगमें ईसाई धर्मप्रचारकों द्वारा संचालित भारतीय भाषा-विद्यालयमें दिया गया था।
  2. देखिए खण्ड १३, पृष्ठ २२१-२७ ।