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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

है। उसमें मैंने कहा था कि पादरी सदा अपने धर्मके अनुयायियोंकी गिनती करते हैं, ऐसा करना बड़ी भूल है। आज धर्मपरिवर्तनकी प्रवृत्ति जिस प्रकार चलाई जा रही है, मुझे उसमें तनिक भी श्रद्धा नहीं है। इसका परिणाम कुछ लोगोंके लिए भले ही लाभदायक रहा हो; किन्तु उससे जो अनिष्ट हुआ है उसकी तुलनामें तो वह लाभ कुछ भी नहीं है। धर्म-सम्बन्धी तनातनीका कोई अर्थ नहीं होता। ईश्वर यह चाहता है कि जो बात हमारे हृदयमें हो वही होठोंपर रहे। आज हजारों ऐसे स्त्री-पुरुष हैं जो 'बाइबिल' या ईसाका नामतक नहीं जानते; किन्तु फिर भी वे 'बाइबिल' जाननेवाले तथा उसके दस आदेशोंका पालन करनेकी बातें करनेवाले ईसाइयोंकी अपेक्षा अधिक आस्तिक और धर्मभीरु हैं। धर्म कोई बातें बनानेकी चीज नहीं है। वह तो शूरवीरोंका मार्ग है। कोई मनुष्य किसी एक धर्मको छोड़कर दूसरा धर्म ग्रहण करते ही अच्छा बन जाता है, मेरी अल्प बुद्धि यह बात माननेको तैयार नहीं है। मैं ऐसे अनेक भारतीय और जुलू लोगोंके उदाहरण दे सकता हूँ जो ईसाई तो बन गये हैं, किन्तु जिनके हृदयमें प्रेमकी या ईसाके बलिदानकी अथवा ईसाके सन्देशकी गन्ध- तक नहीं है।

इस सम्बन्धमें मुझे जोहानिसबर्गके श्री मरे नामके पादरीसे हुई अपनी बातचीत याद आ जाती है। एक मित्रने उनसे मेरा परिचय कराया था। उसको आशा थी कि मैं ईसाई बन जाऊँगा। हम घूमने निकले, मार्गमें उन्होंने मुझसे कई प्रश्न पूछे और उलट-पलट कर जिरह की। काफी जिरह कर चुकनेके बाद उन्होंने मुझसे कहा, 'नहीं भाई, मुझे आपको ईसाई नहीं बनाना है, बल्कि मैं तो अब किसीको भी ईसाई नहीं बनाऊँगा।' उनकी यह बात मुझे बहुत अच्छी लगी। उन्होंने यह भी माना कि ईसाके आदेशका जो अर्थ मैंने किया है, वह ठीक है। मैंने 'बाइबिलका'[१] उद्धरण देते हुए कहा, "जो मुँहसे प्रभु-प्रभु कहता है, उसे मुक्ति नहीं मिलती; मुक्ति उसे मिलती है जो प्रभुकी इच्छाके अधीन होकर प्रभु जैसा चाहता है, वैसा ही करता है। मुझे अपनी कमजोरियोंका ज्ञान है। मैं उनसे संघर्ष कर रहा हूँ, अपने बलसे नहीं, बल्कि ईश्वरने मुझे जो बल दिया है उससे। क्या आप यह चाहते हैं कि मैं ईश्वरप्रदत्त बलके आधारपर इस प्रकारका संघर्ष न करूँ और उसके बजाय तोतेकी तरह यह कहता रहूँ कि ईसाने मेरे पाप धो दिये हैं और अब मैं शुद्ध हो गया हूँ?" वे चौंक उठे और मुझे रोक कर बोले, "आप जो-कुछ कहते हैं वह मेरी समझमें आ गया।

मैं आज आपसे भी उतने ही भावावेशमें बात कर रहा हूँ जितने भावावेशमें मैंने उन मित्रसे बातचीत की थी, क्योंकि मैं जैसे उनके हृदयका स्पर्श करना चाहता था, वैसे ही आपके हृदयको भी स्पर्श करना चाहता हूँ। आप धर्मपरिवर्तन किये गये लोगोंकी गिनती क्यों बढ़ाते रहना चाहते हैं, आप उनकी मौन सेवा क्यों नहीं करते? क्या आप मुझे यह बतायेंगे कि आप लोगोंका धर्मपरिवर्तन क्यों करना चाहते हैं? यदि आपके संसर्गमें आनेसे उनका जीवन निर्मल और उदात्त हो जाये और वे असत्य और अन्धकारका मार्ग छोड़कर सत्य और प्रकाशके मार्गपर आ जायें तो क्या इतना

  1. सेन्ट मेथ्यू. ७, २१; २१, २८-३१।