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११६. धर्मके नाम अन्धेर

गुजरातमें लाड जातिमें जो झगड़ा चल रहा है, उसके सम्बन्धमें मुझे एक लम्बा पत्र मिला है। लेखकने शुद्ध भावसे प्रयत्न करके मुझे झगड़के सम्बन्धमें बहुत-सी जानकारी दी हैं और बताया है कि समझौतेके लिए जितने भी प्रयत्न किये जा सकते थे उतने किये गये हैं। मैं उनकी बातपर विश्वास करनेके लिए तैयार हूँ। लेकिन मेरा विचार लाड जातिके विषयमें कुछ लिखने या सुझाव देनेका नहीं है, बल्कि उसपर से जो विचार मुझे सूझे हैं सिर्फ उनको हिन्दू समाजके सामने प्रस्तुत करनेका है।

एक तरफ तो हिन्दूधर्मकी रक्षाके निमित्त संगठन किया जा रहा है और दूसरी तरफ हिन्दूधर्ममें जो दुर्बलतायें हैं, वे उसे अन्दर-ही-अन्दर घुनकी तरह खा रही हैं। अतः जिस प्रकार धुन लकड़ीके एक मोटे लट्ठमें बैठा उसे भीतरसे खा रहा हो तो वह लट्ठा ऊपरसे ढक देने या रोगन लगा देनेपर भी अन्तमें तो खोखला ही हो जायेगा, उसी प्रकार जो घुन हिन्दू जातिके हृदयमें बैठा उसे खा रहा है, वह नष्ट न किया जायेगा तो हम बाहरसे हिन्दूधर्मकी रक्षा चाहे कितनी ही क्यों न करें, उसका नाश हुए बिना न रहेगा।

वर्णबन्धनके नामपर वर्णोंका संकर हो रहा है और हो चुका है। वर्णोंकी मर्यादा नष्ट हो गई है और अब उनकी अतिशयता ही बाकी बची है। वर्णबन्धन धर्मकी रक्षाके लिए रखा गया था; किन्तु वह आज विकृत बनकर उसका नाश कर रहा है। वर्ण तो चार ही होने चाहिए, लेकिन इसके बजाय आज तो वे असंख्य और अगणित हो गये हैं। वर्ण मिट गये हैं और वे जातियों उपजातियोंमें बँट गये हैं। जिस प्रकार आवारा और लावारिस ढोर बाड़े (मवेशीखाने) में बन्द कर दिये जाते हैं उसी प्रकार हम लोग भी लावारिस बनकर इन जातियों——उपजातियों के बाड़ोंमें बन्द होकर बन्दी बन गये हैं। वर्ण प्रजाके पोषक थे; किन्तु जातियाँ प्रजाकी विनाशक बन गई हैं। हम हिन्दू प्रजाकी या हिन्दुस्तानकी सेवा करनेके बजाय अपनी इन बन्धन रूप जातियोंको कायम रखनेमें व्यस्त रहते हैं और उससे जो प्रश्न उत्पन्न होते हैं उनका निर्णय करनेमें अपने समय, बुद्धि और धनका व्यय करते हैं। व्याध उधर शहदके छत्तेको तोड़नेके लिए तैयार खड़ा है, इधर मूर्ख मक्खियाँ एक दूसरीकी कोठरियोंपर कब्जेके बारेमें पंचायत कर रही हैं। जहाँ बीसा और दस्साका भेद ही मिटाया जाना चाहिए, वहाँ बीसा बड़े या दस्सा बड़े, यह प्रश्न ही कहाँ रहता है? जहाँ समस्त हिन्दुस्तानके वणिकोंको एक कौम बन जाना चाहिए वहाँ दस्सा-बीसा, मोढ़-लाड और हालारी-घोघारीके भेदों और उनके बीचके झगड़ोंके लिए अवकाश ही कैसे हो सकता है?

वर्ण कर्मानुसारी थे। लेकिन आज जातिका आधार तो एक रोटी-बेटी व्यवहार ही है। जबतक मैं रोटी-बेटी व्यवहारकी मर्यादाकी रक्षा करता हूँ तबतक मैं कलालकी दुकान करूँ, या शमशेर बहादुर बनूँ या विदेशी गोमांसके बन्द डिब्बे बेचूँ