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धर्मके नाम अन्धेर

तो भी कोई आपत्ति नहीं। यह सब करनेपर भी मैं वणिक जातिमें आदरणीय माना जा सकता हूँ। मैं एक पत्नीव्रतका पालन करता हूँ या अनेक सुन्दरियोंसे रमण करता हूँ, जाति इस झगड़ेमें नहीं पड़ती, इतना ही नहीं, बल्कि मैं जातिका चौधरी बनकर रह सकता हूँ, उसके लिए नयी स्मृतियाँ बना सकता हूँ और उससे पुरस्कृत हो सकता हूँ। मैं कहाँ खाता-पीता हूँ या कहाँ अपने पुत्रों और पुत्रियोंका विवाह करता हूँ, मेरी जाति इसकी चौकीदारी तो करती है; लेकिन उसे मेरे आचरणका निरीक्षण करनेकी जरूरत नहीं मालूम पड़ती। मैं विलायत हो आया हूँ इसलिए कन्याकुमारीके गर्भागार में नहीं जा सकता। लेकिन यदि मैं खुल्लम-खुल्ला व्यभिचार करूँ तो मुझे उसके कारण उस गर्भागारमें जानेसे कोई नहीं रोकेगा।

इस चित्रणमें कहीं भी अतिशयोक्ति नहीं है। यह धर्म नहीं है; यह तो अधर्मकी परिसीमा है। इससे वर्णकी रक्षा न होगी, उसका नाश होगा। मैं वर्णाश्रम धर्मकी रक्षाका उद्योग तो करता हूँ; लेकिन यदि यह अधर्म दूर न होगा तो मैं उसकी रक्षा करनेमें असमर्थ ही सिद्ध हूँगा। यहाँ तो वर्णकी अतिशयताने ही वर्णका स्थान ले रखा है; इसलिए इस अतिशयताके नाशके बजाय वर्णोंका ही नाश होने का भय है।

अब यह देखें कि ऐसी असंख्य जातियोंकी रक्षा किस प्रकार सम्भव है। अहिंसा प्रधान धर्म हिंसाका आचरण करके जातिको बनाये रखनेका प्रयत्न कर रहा है। जिसने जातिके कृत्रिम और अनुचित बन्धन तोड़ दिये हैं, उसे समझाने और उसकी 'भूल' बताने का तो प्रयत्न किया नहीं जाता, बल्कि उसका फौरन ही बहिष्कार कर दिया जाता है। बहिष्कार करना अर्थात् उसको सब प्रकारसे सताना, उससे खान-पान, ब्याह-सगाई और मौत गमीमें आने-जानेका व्यवहार भी बन्द कर दिया जाता है और यह दण्ड बहिष्कृत व्यक्तिको सन्ततिको भी भोगना पड़ता है। इसका नाम है चींटीपर सेना लेकर धावा; और यदि इस युगकी भाषामें कहें तो डायरशाही। ऐसे अत्याचारोंसे तो हजार, दो हजार मनुष्यकी संख्यावाली जातियाँ टिकनेके बजाय नष्ट ही हो जायेंगी। इनका नाश वांच्छनीय अवश्य है, लेकिन जोर जबरदस्तीसे किया गया नाश हानिकर होगा। उनका नाश जब इच्छा-पूर्वक किया जायेगा तभी समाजके लिए पोषक होगा। सबसे अच्छा उपाय तो यह है कि छोटी-छोटी जातियोंकी पंचायतें मिलकर एक बड़ी जाति बना लें और यह बड़ी जाति दूसरे संघोंके साथ मिलकर चारों वर्णोंमें से एक स्थान प्राप्त कर लें। लेकिन आजकी शिथिलताकी हालतमें तो तत्काल ऐसा सुधार होना नामुमकिन सा है।

अतः धर्मका पालन जितना कठिन है उतना ही आसान भी है। जिस प्रकार हरएक समाज धर्मकी वृद्धि कर सकता है उसी प्रकार हरएक व्यक्ति भी कर सकता है। व्यक्तियोंको चाहिए कि वे निर्भय बनकर जिसे धर्म मानते हों उसपर अमल करें और यदि उन्हें बहिष्कृत किया जाये तो उसकी कुछ भी फिक्र न करें। उन्हें जातिके इन तीनों प्रकारके दण्डोंका विनयपूर्वक स्वागत करना चाहिए और उन्हें यह नहीं मानना चाहिए कि उन्हें ये दण्ड विवश करनेके लिए दिये गये हैं। जातिभोज देनेसे