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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

कोई लाभ नहीं है, किन्तु न देनसे अनक बार लाभ होता है। मैं तो मृत्यु-भोजको पाप ही मानता हूँ। लड़केके लिए लड़की और लड़कीके लिए योग्य लड़का जातिमें न मिले तो यह भी चिन्ताका विषय नहीं है। इसका कारण यह है कि जिसे दण्ड दिया गया है उसके लिए वह दण्ड नहीं है क्योंकि वह तो उपजातियोंके अस्तित्वको ही नहीं मानता। यदि लड़की या लड़का लायक हो तो दूसरे समाजोंके सुधारक वर्गमें से योग्य लड़का या लड़की मिलनेमें कोई कठिनाई न होगी। लेकिन यदि कठिनाई हो तो भी उसका सामना करना ही धर्म है। चरित्रवान् और संयमीके लिए ऐसी कठिनाइयाँ, कठिनाइयाँ ही नहीं हैं। वह तो उनका सामना प्रसन्न चित्त होकर ही करता है। यदि उसे गमीके मौकेपर भी जातिकी मदद न मिले तो उसमें भी दुःख माननेकी क्या बात है? दूसरे मददगार मिल जायेंगे। मैं मुर्दा गाड़ीके विषयमें तो लिख ही चुका हूँ। उसका उपयोग करनेसे कम मदद दरकार होगी। जिसे उतनी मदद भी न मिल सके वह मजदूर बुला ले। जो इतना दीन हो कि उसके पास मजदूरी देने के लिए भी पैसे न हों, किन्तु वह ईश्वरका भक्त हो, उसे तो यही विश्वास रखना चाहिए कि ईश्वर उसे कहींसे भी मदद भेज देगा। दण्डका भय छोड़ देना ही सत्याग्रह है। सत्याग्रहका शस्त्र जिस प्रकार सरकारसे लड़नेमें उत्तम शस्त्र है उसी प्रकार जातिसे लड़नेमें भी है। चूँकि दोनों रोग एक ही प्रकारके हैं, इसलिए दोनोंकी चिकित्सा भी एक ही है। सत्याग्रह अत्याचारका इलाज है। हिन्दूधर्मकी——अन्य धर्मोकी भी——रक्षा केवल सत्याग्रहसे ही की जा सकती है।

मैं प्रत्येक धर्मप्रेमीको विनयपूर्वक यह सलाह देता हूँ कि वे नाना प्रकारके जाति विषयक झगड़ोंमें न पड़ें और अपने कर्त्तव्यपर दृढ़ रहें। यह कर्त्तव्य है——अपने धर्मकी और देशकी रक्षा करना। धर्मकी रक्षा छोटी-छोटी जातियोंकी अनुचित रक्षा करनेसे नहीं होगी; बल्कि धार्मिक आचरणसे ही होगी। धर्मकी रक्षाका अर्थ है——हिन्दू-मात्रकी रक्षा। स्वयं चरित्रवान् बननेसे ही हिन्दू-मात्रकी रक्षा होगी। चरित्रवान् बननेका अर्थ है; सत्य, ब्रह्मचर्य, अहिंसादि व्रतोंका पालन करना, निर्भय बनना अर्थात् मनुष्य-मात्रके भयका त्याग करना, ईश्वरपर श्रद्धा रखना और उससे डरना, वह हमारे सब कामों- का और सब विचारोंका साक्षी है, यह मानकर मलिन विचार मनमें लाते हुए काँपना, जीव-मात्रकी सहायता करना, दूसरे धर्मोके मनुष्योंको भी मित्र मानना और परोपकारमें समय बिताना इत्यादि। फिलहाल उपजातियोंका अस्तित्व तभी क्षन्तव्य माना जा सकता है जब उनके सब काम साधारण रूपसे धर्म और देशहितके पोषक हों। जो जाति सारे विश्वका उपयोग अपने ही लिए करती है उसका नाश ही इष्ट है। जो जाति संसारके कल्याणमें योग देती है, उसीका चिरंजीवी होना योग्य है।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, ७-६-१९२५