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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

चिन्ता तो केवल शिक्षणतक ही सीमित रहती है। चूँकि यह कार्य उसीके हाथमें होता है; इसलिए वह अपने सुखका कर्त्ता या हर्त्ता स्वयं ही बन जाता है।

मेरे ऊपर कुछ ऐसी छाप पड़ी है कि इस प्रकारके सेवक बंगालमें अधिक दिखाई पड़ते हैं। ये युवक बहुतसे स्थानोंमें फैल गये हैं। उनका एक-दूसरेसे बहुत कम सम्बन्ध है। सभी अपने-अपने काम में तन्मय दिखाई पड़ते हैं। मुझे ऐसे कार्यकर्त्ताओंको देखनेके अनेक प्रसंग मिल रहे हैं और ये प्रसंग ज्यों-ज्यों आते हैं त्यों-त्यों मेरी इच्छा यही होती है कि मैं बंगालसे अभी न जाऊँ। मैं ऐसे ही सेवकोंमें स्वराज्यका बीज देख रहा हूँ। उनमें भारतकी आशा छिपी है। वे नहीं बोलते, उनका काम बोलता है।

हाथकी भाषा

ऐसे कार्यकर्त्ताओंको देखकर ही एक सभामें भाषण देते हुए मेरे मुँहसे 'हाथकी भाषा' शब्द निकला। यह सभा कलकत्तेमें की गई थी। मैं इसमें नियत समयपर पहुँच गया था। उसमें बहुत-से स्त्री-पुरुष तो उस समय भी आ ही रहे थे। सभाका कार्यक्रम संगीतसे शुरू किया जानेवाला था। संगीताचार्य अभी नहीं आये थे; इसलिए मेरा भाषण आरम्भ होनेमें कुछ देर थी। मैंने अपनी तकली निकाली। मेरी तकली मेरे साथ ही रहती है और जब फुरसत मिलती है तब मैं उससे थोड़ा सूत कात लेता हूँ। मैं तकली चलानेमें सबसे अकुशल सिद्ध हुआ हूँ। अबतक मेरा हाथ जैसा चाहिए वैसा बैठा नहीं है। अभीतक कोई यह नहीं बता सका है कि 'दोष' कहाँ है। लेकिन मैं तकलीसे हारनेवाला थोड़े ही हूँ। हम दोनोंमें युद्ध चलता ही रहता है। कुछ भी हो मैं उससे सूत तो कात ही लेता हूँ; इसलिए मैंने उस समयका उपयोग तकली चलानेमें किया। मेरे पास जितनी भी पूनियाँ थीं सब खत्म हो गईं; लेकिन मेरा भाषण आरम्भ होनेमें तो अब भी देर थी। इसलिए इस अवकाश कालमें मुझे क्या कहना चाहिए यह सोच लिया और श्रोताओंसे कुछ इस प्रकार कहा :

'अब मुझे भाषण देनेकी जरूरत ही कहाँ रही है? सामान्य भाषण मुँहसे दिये जाते हैं और कानोंसे सुने जाते हैं। लेकिन मैंने अपना भाषण हाथसे किया है और यदि आपने अपनी आँखोंका उपयोग किया हो तो आपने वह आँखोंसे सुना होगा। मुँहसे दिये गये भाषणमें अकसर हृदय और वाणीका मेल नहीं होता। हृदयमें होता कुछ है तो वाणीसे निकलता कुछ है। हाथके भाषणमें ऐसे दोषको स्थान नहीं है, क्योंकि उसका मनसे कोई भी सम्बन्ध नहीं होता। उसे देखकर तो आप जो चाहते हैं वह अर्थ निकाल सकते हैं। हाथसे जो सूत कत रहा है वह तो बेकार नहीं जा सकता। मैंने मुँहसे बहुत सुनाया है और आपने कानोंसे बहुत सुना है। लेकिन बंगालने मुझे हाथोंसे भाषण करना सिखाया है। मुझे इसका प्रथम पाठ फरीदपुरके विद्यार्थियोंने पढ़ाया था। उसे मैं भूला नहीं हूँ। उसके बादसे मैं बहुत-सी सभाओंमें चरखा चलाता हूँ और कहीं-कहीं तो फरीदपुरकी तरह चरखा चलाते हुए मुँहसे भाषण भी देता जाता हूँ और इस प्रकार हाथ और मुँहका मेल व्यवहारतः करके दिखाता हूँ। मैं देख रहा हूँ कि अब केवल मौनका युग आ रहा है। हाथकी भाषा ही सच्ची