पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 27.pdf/२४९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२१७
बंगालमें

भाषा मानी जायेगी। इस भाषाको गूंगे और निरक्षर भी बोल सकेंगे और यदि देखते होंगे तो बहरे भी सुन सकेंगे।

मेरे सूतके तार निकालनेका अर्थ सिर्फ सूत कातना ही नहीं है। मैंने सूत कातकर यह दिखाया है कि यद्यपि मेरा शरीर आपके पास है किन्तु मेरा हृदय बंगालके गाँवोंकी झोंपड़ियोंमें है। मैंने सूत कातकर उनके साथ तादात्म्य स्थापित किया है, क्योंकि मैं यह जानता हूँ कि करोड़ों भूखों मरते कंगाल हिन्दुस्तानियोंके जीवनका अवलम्ब यह सूतका तार ही है। यदि हम लोग उनकी खातिर चरखा न चलायेंगे तो उनके अस्थिपंजरोंपर चर्बी नहीं चढ़ेगी। वे वस्त्र पहने होनेपर भी नंगे रहेंगे और उद्यम करनेपर भी निरुद्यम रहेंगे। चरखेको उन्हें अन्नपूर्णा समझकर चलाना चाहिए। और हमें उनको ठीक मार्ग दिखानेके लिए, शान्ति देनेके लिए और खादी सस्ती करनेके लिए यज्ञ समझकर इसे चलाना चाहिए। वे जितने भी घंटे खाली रहें चरखा चलायें और हम उनके लिए अर्थात् यज्ञार्थ भले ही सिर्फ आधा घंटा चरखा चलायें लेकिन यदि हम ही चरखा नहीं चलायेंगे तो वे भी चरखा नहीं चलायेंगे। हम चरखा नहीं चलायेंगे तो चरखके दोषोंको कौन दूर करेगा, चरखा-शास्त्र कौन बनायेगा और चरखेकी शक्तिका माप कौन करेगा? उसका विनाश हमारे हाथोंसे हुआ है, इसलिए उसका पुनःस्थापन भी हमारे ही हाथोंसे होना चाहिए। यह सब अर्थ और बहुत-से दूसरे भी अर्थ, मैंने जो हाथसे भाषण किया है, उसमें मौजूद हैं। हमने गरीब किसानोंसे बहुत-कुछ लिया है, इसलिए धर्म यही है कि हम चरखा चलाकर उन्हें उसमें से कुछ वापस करें।

शान्तिनिकेतन

लेकिन बंगालमें मेरे लिए एक यही आकर्षण नहीं है। यहाँ तो मेरे लिए अनेक आकर्षण मौजूद हैं। मैं शान्तिनिकेतनमें जाये बिना रह ही कैसे सकता था? मैं ये टिप्पणियाँ शान्तिनिकेतनमें बैठा मौनवारको लिख रहा हूँ।[१] शान्तिनिकेतनवासी मुझे परम शान्ति दे रहे हैं। यहाँ बहनें मुझे अपने मधुर गीत सुना रही हैं। मैंने महाकविसे घंटों जी-भरकर बातचीत की। अब मैं उन्हें कुछ अधिक समझ सका हूँ; कहना चाहिए कि वे मुझे कुछ अधिक समझने लगे हैं। उन्होंने मुझपर अपना प्रेम व्यक्त करनेमें कोई कसर नहीं रखी है। उनके बड़े भाई द्विजेन्द्रनाथ ठाकुरका तो, जो 'बड़ो दादा' के नामसे प्रसिद्ध हैं, मुझपर वैसा ही प्रेम है जैसा पिताका पुत्रके प्रति होता है। वे मेरे दोष तो देखना ही नहीं चाहते। उनके खयालसे तो मैंने कोई गलती की ही नहीं और मेरा असहयोग, मेरा चरखा, मेरा सनातनीपन, मेरी हिन्दू-मुस्लिम ऐक्यकी कल्पना और मेरा अस्पृश्यताका विरोध——सब बातें सर्वथा उचित हैं, और मेरी तरह उनका भी विश्वास है कि स्वराज्य इन्हींपर निर्भर है। जैसे पिता मोहवश पुत्रके दोष नहीं देखता उसी प्रकार 'बड़ो दादा' भी मेरे दोष बिलकुल देखना नहीं चाहते। उनके मोह और प्रेमका तो मैं यहाँ उल्लेख-भर कर सकता हूँ;

  1. गांधीजी २९. मईसे १ जूनतक शान्तिनिकेतन रहे थे।