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११८. काठियावाड़में खादी

काठियावाड़से आये हुए पत्रोंको देखनेसे ऐसा जान पड़ता है कि जिन-जिन भाइयोंने हाथसे सूत कातनेवाले किसानों और निर्धन वर्गके लोगोंको संगठित करनेका बीड़ा उठाया था, वे अपने प्रयत्नमें सफल हो गये हैं। इस सम्बन्धमें देवचन्द भाई पूरी तरह आश्वस्त हैं। लगता है कि अधिक प्रयासके बिना ही ऐसे परिवार मिल गये हैं। वे मानते हैं कि यदि अधिक कार्यकर्त्ता हों और हम आधे मूल्यपर अधिक पूनियाँ दे सकें तो सूत कातनेके लिए बहुत-से परिवार तैयार हो जायेंगे। किन्तु जितने परिवार अनायास मिल चुके हैं उनकी सेवा करना ज्यादा अच्छा है या समझानेके बाद जो परिवार तैयार होंगे उनके पास जाना? प्राप्त परिवारोंकी सेवा करनेका अर्थ है हमारे और उनके बीच काम करनेवालोंकी व्यवस्थाको दृंढ़ करना, चरखेमें सुधार करना और अच्छा सूत कतवाना और कातनेवालोंको धुनना सिखाना आदि।

मैं इतनी दूर बैठा इस सम्बन्धमें सलाह देनेमें असमर्थ हूँ और स्वयंको इसका अनधिकारी मानता हूँ। समय-समयपर उपस्थित होनेवाली परिस्थितिको जाने बिना कोई सलाह देना मैं भयंकर समझता हूँ। इसलिए बंगालमें जो अनुभव हुए हैं उनको मैं कार्यकर्त्ताओंके सम्मुख प्रस्तुत करना चाहता हूँ। मैं बंगालमें देखता हूँ कि कहीं भी पूरी-पूरी पूनियाँ शायद ही दी जा सकी हैं। कलकत्ताके सिवा किसी दूसरी जगह पूनियाँ दी भी नहीं जातीं। केवल रुई ही दी जाती है। इसके अतिरिक्त हजारों सूत कातनेवाली बहनें तो कपास ही माँगती हैं। वे उसे हाथसे ओट लेती हैं। जिन्हें कातनेका अनुभव है, वे समझ सकते हैं कि जो लोग ओटने और धुननेका काम स्वयं कर लेते हैं उनकी कमाई बढ़ ही जाती है। इन कामोंको अपने-अपने घरोंमें करना कठिन नहीं है। जिन्होंने ये काम किये हैं वे इस बातको जानते ही हैं। बंगालमें अभीतक लोग पुराने जमानेको भूले नहीं हैं, इसलिए वे सहज ही इन बातोंको पकड़ लेते हैं। बंगालकी जैसी पूनियाँ तो कोई बना ही नहीं सकता। उनकी पूनियोंमें किरी बिलकुल नहीं होती। यदि हम ओटाईका काम प्रत्येक कातनेवालेके घरमें आरम्भ नहीं करा सकते तो भी धुनाईका काम क्यों नहीं आरम्भ करते? मैंने यहाँकी धुनकियाँ बहुत सादी बनी हुई देखी हैं। उनका मूल्य चार या छः आनेसे ज्यादा शायद ही होता हो। लोग बाँसको भिगोकर झुका लेते हैं और कई बार केलेके रेशोंकी डोरी बटकर उसकी ताँत बना लेते हैं। वे घोटा तो काममें ही नहीं लाते हैं। वे उसका काम उंगलीसे ही ले लेते हैं। हम भले इतना न करें और शायद इसकी जरूरत भी न हो; किन्तु जो लोग नियमित रूपसे कातते हैं, उनको तुरन्त धुनाई सीख लेना तो जरूरी है ही। कातनेवालोंको पूनियाँ हमेशा पर्याप्त मात्रामें मिल सके, यह मुझे मुश्किल दिखाई देता है।

दूसरी बात यह अनुभवमें आई है कि यहाँ दस अंकसे कमका सूत शायद ही कोई कातता हो। बाजारमें जो सूत मिलता है वह प्रायः दस अंकसे ऊपरका होता