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१२४. यह पुरुषोंका काम नहीं?

एक प्रोफेसर साहब इस प्रकार लिखते हैं:

स्वयं तो मुझे चरखे और खादीमें पूर्ण विश्वास है। यह बात मेरी समझमें खूब अच्छी तरह बैठ गई है कि सिवाय खद्दरके कोई भी ऐसा सूत्र नहीं है जो उच्च वर्गके लोगोंको आम लोगोंसे जोड़ सकता हो। और ऐसे किसी सूत्रके बिना और एकत्वका अनुभव किये बिना, कोई भी देश किसी भी कार्यको सिद्ध नहीं कर सकता; हिन्दुस्तान तो और भी नहीं। इसके अलावा मैं यह भी अच्छी तरह समझता हूँ कि काफी तादादमें खादीका उत्पादन शुरू हो जानेपर विदेशी कपड़ा आना बन्द हो जायेगा। यदि हिन्दुस्तानको स्वतन्त्रता प्राप्त करनी है तो उसे खादोके कार्यक्रमपर पूरे तौरपर अमल करना होगा।
लेकिन मेरा खयाल है कि आपने गलत सिरेसे काम करना शुरू किया है। स्वस्थ और सशक्त मनुष्योंको स्त्रियोंकी तरह कातनके लिए बैठनेको कहना बहुतेरे मनुष्यों को अजीब-सा मालूम होता है। मैं इस व्यंगपूर्ण उक्तिको ठीक मानता हूँ कि आजकल हम लोग औरतोंसे किसी प्रकार भी बढ़कर नहीं हैं। फिर भी हकीकत यह है कि हम लोग उस कार्यको करना स्वीकार नहीं कर सकते जिसे कि सैकड़ों वर्षोंसे स्त्रियोंसे ही सम्बन्धित माना जाता रहा है। और यदि मुझको इसका भी विश्वास दिलाया जा सके कि कमसे-कम भारतवर्षकी सभी स्त्रियोंने कताईको अपना लिया है और फिर भी इस काममें पुरुषोंके हाथ बँटानेकी जरूरत है तो मैं अपने आजके इस खयालको छोड़ देनेके लिए तैयार हो जाऊँगा। बारीक विदेशी साड़ियाँ पहनकर औरतें तो इठलाती फिरें और पुरुषोंसे कातके लिए कहा जाये, यह तो उलटी गंगा बहानके समान ही होगा। इसके अतिरिक्त, विदेशी कपड़ोंके आयातकी जिम्मेवारी पुरुषोंपर उतनी नहीं है जितनी कि स्त्रियोंपर, और इसलिए मेरा यह खयाल है कि खद्दर और चरखेका उपयोग करनेके लिए स्त्रियोंके बजाय पुरुषोंपर दबाव डालना गलत सिरेसे काम शुरू करना होगा।
मेरी विनम्र राय है कि आपको पुरुषोंको तो उन विभिन्न प्रकारके राजनीतिक प्रचारके कार्यमें ही लगे रहने देना चाहिए था, और अपना सन्देशा सीधे-सीधे स्त्रियोंको ही सुनाना चाहिए था। फिलहाल अपने चरखे और खादीके महान् कार्यक्रमको आप स्त्रियोंके क्षेत्रतक ही सीमित करें और पुरुषोंको पुरुषोचित हथियारोंसे ही स्वतन्त्रताकी लड़ाई लड़ने दें।