पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 27.pdf/२६१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२२९
आयुर्वेदिक चिकित्सा-प्रणाली

विरुद्ध होता तो मैं किसी भी हालतमें इस सम्मानको स्वीकार करनेसे साफ इनकार ही कर देता। जो शर्तें मैंने उस समय सभामें जाहिर की थीं उन्हीं शर्तोंपर यह विधि सम्पन्न करनेको राजी होना सम्भव था। मुझे आशा है कि जिस संस्थाकी मैंने नींव रखी थी और जिसके संस्थापकने, जो स्वयं एक कविराज हैं उसके लिए एक बड़ी भारी रकम दी है, वह सचमुच ही मानवीय कष्टोंको मिटानेमें सहायक होगी; वह आयुर्वेदका प्रत्यक्ष अभ्यास, संशोधन और नया शोध-कार्य भी करेगी और इस प्रकार इस मुल्कमें जो सबसे ज्यादा गरीब हैं, उन्हें मामूली देशी दवाओंका ज्ञान प्राप्त करने तथा उन्हें उपयोगमें लानेका सुभीता कर देगी और लोगोंको रोग दूर करनेके उपाय सिखानेके बजाय रोगोंको न होने देनेके उपाय बतायेगी।

समूचे चिकित्सा-व्यवसायसे जो मेरा विरोध है उसका कारण यह है कि उसमें आत्माकी ओर जरा भी ध्यान नहीं दिया जाता और इस शरीर-जैसे नाशवान, क्षणभंगुर साधनकी मरम्मत करनेके प्रयत्नमें जो श्रम किया जाता है वह एक नगण्य वस्तुके लिए ही किया गया प्रयत्न है। इस प्रकार यह पेशा आत्माकी उपेक्षा करके मनुष्योंको अपना मोहताज बना देता है और मनुष्यके गौरव तथा आत्मसंयमको घटानेमें मदद करता है। मैं इस बातका उल्लेख कृतज्ञतापूर्वक करता हूँ कि पाश्चात्य देशोंमें धीरे-धीरे, पर निश्चित रूपसे ऐसे विचारोंके लोग पैदा हो रहे हैं जो रोगग्रस्त शरीरको अच्छा करनेके अपने प्रयत्नमें आत्माका भी ध्यान रखते हैं और इसलिए वे उपचारके प्रबल साधनके रूपमें दवाओंपर उतना भरोसा नहीं रखते जितना कि कुदरतपर। आयुर्वेदके विद्वानोंसे मेरा विरोध इसलिए है कि उनमें से अधिकांश नहीं तो बहुतेरे तो नीम हकीम ही होते हैं। वे जितना जानते हैं उससे कहीं अधिक जाननेका दावा करते हैं। वे इस बात का दावा करते हैं कि वे सब किस्मके रोगोंको निश्चय ही दूर कर सकते हैं। इन लोगोंमें नम्रता नहीं होती। वे आयुर्वेद-प्रणालीका अभ्यास नहीं करते और उसके उन रहस्योंका उद्घाटन करनेका प्रयास नहीं करते, जो आज संसारकी नजरोंसे बिलकुल ही ओझल प्रतीत होते हैं। वे कहते हैं कि आयुर्वेद सर्वशक्ति सम्पन्न है, लेकिन बात ऐसी नहीं है। और ऐसा करके उन्होंने उसे दिन-प्रतिदिन प्रगति करनेवाली यशस्वी पद्धति बनानेके बजाय केवल एक जड़ पद्धति बना दिया है। मुझे एक भी ऐसी महत्त्वपूर्ण शोध या ईजादका पता नहीं जो आयुर्वेद-विशारदोंने की हो, जबकि पाश्चात्य डाक्टर और सर्जन लोग अनेक उत्तम शोध और ईजादें कर चुकनेका दम भरते हैं। आयुर्वेद जाननेवाले साधारणतया नाड़ी देख कर रोग पहचानते हैं। मैं बहुत-से ऐसे वैद्योंको जानता हूँ जो इस बातका दावा करते हैं कि वे रोगीकी नाड़ी देखकर ही यहाँतक जान लेते हैं कि उसे 'अपेंडिसाइटिस' है या नहीं। यह तो कोई नहीं कह सकता कि पुराने जमानेमें भी कभी नाड़ीविज्ञान इतना बढ़ा-चढ़ा था या नहीं कि उस जमानेके वैद्य नाड़ी देखकर ही मुख्य-मुख्य रोगोंका निदान कर लेते। परन्तु यह निश्चित है कि आज यह दावा प्रमाणित नहीं किया जा सकता। आज तो आयुर्वेद जाननेवाले सिर्फ इतना ही दावा कर सकते हैं कि उन्हें वनस्पति और धातुसे बनी कुछ ऐसी दवाओंका ज्ञान है जो बड़ी कारगर