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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

होती हैं और यदि उनमेंसे कुछ रोगीको दी जायें तो बड़ा फायदा पहुचाती हैं। वे इन रोगोंकी सिर्फ अटकल ही लगाते हैं और इससे वे गरीब रोगियोंके लिए बहुत हानिकर सिद्ध होती हैं। दवाओंके वे विज्ञापन जो कामवासनाको भड़काते हैं, असमर्थतामें अनीतिका समावेश करते हैं और जो लोग ऐसे उपायोंका अवलम्ब लेते हैं वे समाजके लिए वास्तविक खतरा बन जाते हैं।

जहाँतक मुझे मालूम है आयुर्वेदाचार्योंका ऐसा कोई संघ नहीं है जो इस अनीतिके अनवरत प्रवाहको जिससे कि हिन्दुस्तानियोंका पुंसत्व नष्ट हो रहा है और जिसके द्वारा बहुतसे बूढ़े लोग सिर्फ अपनी काम-पिपासा तृप्त करनेके लिए राक्षस बनकर जी रहे हैं, रोकनेका प्रयत्न कर रहा हो या विरोधमें स्वर उठा रहा हो। सच तो यह है कि ऐसे वैद्योंको मैंने चिकित्सक-समाजमें काफी मान-प्रतिष्ठाका उपभोग करते देखा है। इसलिए जब कभी मुझे मौका मिलता है मैं यही सत्य वैद्यों या हकीमोंको समझानेका प्रयत्न करता हूँ और उनसे निवेदन करता हूँ कि आप लोग सत्य और नम्रता अपनायें और बड़े धैर्यके साथ अनुसन्धान करें। सभी प्राचीन और उदात्त बातें मुझे प्रिय हैं। मैं यह मानता हूँ कि एक समय था जब कि आयुर्वेद चिकित्सा-प्रणाली या यूनानी दवाओंका ध्येय बड़ा अच्छा था और वे प्रगति कर रही थीं। एक ऐसा भी समय था कि जब मैं वैद्योंमें बड़ा विश्वास रखता था और उनकी सक्रिय रूपसे मदद करता था। लेकिन अनुभवने मेरा भ्रम दूर कर दिया है। बहुतेरे वैद्योंके अज्ञान और अहं- कारको देखकर मुझे दुःख हुआ है। ऐसा गौरवपूर्ण व्यवसाय बिगड़कर मात्र रुपये कमानेका धन्धा बनकर रह गया है, यह देखकर मुझे बड़ा ही कष्ट होता है। मैं यह व्यक्तियोंको दोष देनेके लिए नहीं लिख रहा हूँ। आयुर्वेदाचार्योंकी चिकित्सा प्रणालीका दीर्घकालतक अवलोकन करनेके पश्चात् उसकी जो छाप मुझपर पड़ी है, मैंने उसीको लिखा है। यह कहना कि जिन बुराइयोंका उल्लेख मैंने यहाँ किया है वे उन्होंने पाश्चात्य डाक्टरोंसे सीखी हैं, कोई ठीक उत्तर नहीं हो सकता। बुद्धिमान मनुष्य जो वस्तु बुरी है उसका अनुकरण नहीं करता, जो चीज अच्छी है उसीका अनुकरण करता है। हमारे कविराज, वैद्य और हकीम उस वैज्ञानिक भावनाका अनुकरण करें जो आज पश्चिमके डाक्टरोंमें दिखाई दे रही है। वे उनकी नम्रताको भी ग्रहण करें। वे देशी दवाओंको ढूँढ़ निकालनेके प्रयत्नमें अपनेको गरीब बना डालें। पाश्चात्य चिकित्सा शास्त्रका जो भाग हमारे शास्त्रोंमें नहीं है, उसको वे स्पष्टतया स्वीकार कर लें और उसे अपना लें। लेकिन पाश्चात्य वैज्ञानिकोंकी धर्महीनतासे उन्हें बचना चाहिए। वे शरीरके रोगका निवारण करनेके लिए विज्ञानके नामपर छोटे प्राणियोंको बड़ी पीड़ा पहुँचाते हैं और उसे 'पशुओंपर शोध-मूलक प्रयोग' के नामसे पुकारते हैं। कुछ लोग शायद यह कहेंगे कि आयुर्वेदमें भी ऐसे प्रयोगोंका विधान है। यदि यह सच है तो मुझे बड़ा ही अफसोस होगा। भ्रष्ट वस्तु पवित्र नहीं हो सकती है, उसकी अनुमति भले ही चारों वेदोंमें क्यों न हो।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, ११-६-१९२५