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१३२. पत्र : चित्तरंजन दासको

[१३ जून, १९२५ से पूर्व]

आपके साथ मेरे दिन बहुत ही अच्छी तरह बीते। मैं महसूस करता हूँ कि दार्जिलिंगमें साथ रहनेसे हम एक-दूसरेके ज्यादा नजदीक आ गये हैं।[१]

जलपाईगुड़ीमें केवल ७,००० रुपयेकी थैली मिली। इसे मैंने सतीश बाबूको इस हिदायतके साथ सौंप दिया है कि इसको जो चरखा समिति आप नियुक्त कर रहे हैं, उसे दे दिया जाये। जलपाईगुड़ीमें भी मुझे वैसा ही तजुर्बा हुआ जैसा अन्यत्र होता है। कातनेवाले वहाँ हैं, लेकिन उनको संगठित करनेवाला कोई नहीं है। वहाँ लड़कियोंका एक अच्छा स्कूल है। उनके पास करीब बीस चरखे हैं, पर एक भी कामका नहीं है। बेचारी स्कूलकी मुख्य शिक्षिका हालाँकि खुद अच्छा सूत कातती है, पर अच्छे-बुरे चरखेका फर्क नहीं जान पाती। चरखोंकी हालतसे समितिको कोई वास्ता नहीं। अगर विशेषज्ञों द्वारा मार्गदर्शन किया जाये तो आसानीसे इसका इलाज हो सकता है। प्रस्तावित समिति ऐसा मार्ग-दर्शन कर सकती है।

मेरा आग्रह है कि आप चरखा और तकली दोनोंपर सूत कातना सीखें। यदि आप चाहें तो इसे कर सकते हैं; लेकिन आपको इसपर ध्यान देना होगा। यदि गवर्नर कह दें कि 'कातो और जो चाहो ले लो' तो आप चरखेपर २४ घंटे काम करें और सिद्धहस्त बन जायें। यहाँ यही बात गवर्नर नहीं बल्कि एक ऐसा व्यक्ति जो आपको प्यार करता है और भारतको प्यार करता है, कह रहा है : 'कातो और स्वराज्य प्राप्त करो'। यही तो एक स्थायी महत्त्वका काम हम कर सकते हैं। चरखेके जरिये अपने लिए कपड़े मुहैया करना कोई असम्भव कार्यक्रम नहीं है। सतीश बाबूने जिस कातनेवालेका वादा किया था, वह हमारे कलकत्ता पहुँचते ही आपके पास आ जायगा। सूत कातना अवश्य सीखिये और धर्मकी भावनाके साथ, ईश्वरके नामपर हजारों लोगोंकी खातिर आधा घंटा अवश्य कातिये।[२] इससे आपको शान्ति और प्रसन्नता मिलेगी। और फिर जब आप कातेंगे तो जिन नवयुवकोंपर आपका इतना अद्भुत प्रभाव है, वे भी कातने लगेंगे। आशा है कि ज्वर आपको फिर नहीं सतायेगा।

जिस डाकसे आपको यह पत्र जा रहा है उसीसे एक पत्र भोरलालको जा रहा। हम १८ को कलकत्ता पहुँच रहे हैं। १४ से १६ तक हम बारीसाल में रहेंगे।

  1. गांधीजी दार्जिलिंगमें देशबन्धुके साथ ३-६-१९२५ से ६-६-१२५ तक रहे थे, जहाँ देशबन्धु स्वास्थ्य लाभ कर रहे थे। देखिए "दार्जिलिंगके संस्मरण", १०-७-१९२५ ।
  2. देखिए "टिप्पणियाँ", १६-६-१९२५ का उपशीर्षक "दार्जिलिंगमें चरखा।"