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स्वयंसेवकके गुण

कोई आदर्श जब सबके लिए सामान्य आदर्श स्थापित हो जाता है तभी उसके सम्बन्धमें नियम बनाये जा सकते हैं। जन्नतक आदर्श भिन्न-भिन्न रहता है तबतक उनके सम्बन्धमें नियम नहीं बनाये जा सकते। गुजरातने गरीबीका आदर्श कुछ ही वर्ष हुए स्वीकार किया है। महाराष्ट्र और बंगालने ३० वर्ष या उससे भी पहले गरीबीके आदर्शको अंगीकार कर लिया था और वहाँ उसके अनुसार जीवनयापन करनेके लिए बहुत-से युवक तैयार हो चुके थे। बहुत ही ज्यादा गरीबीसे निर्वाह करनेके इस आदर्शको मानकर चलनेवाली संस्थाएँ बहुत कम ही रहेंगी। गुजरातमें तो फिलहाल इस आदर्श के पालनकी आशा व्यक्तियोंसे ही रखी जा सकती है। दूसरे लोग त्याग करें चाहे न करें, सच्चा संयमी तो इससे अपने संयम या त्यागसे मुँह न मोड़ेगा। जब कुछ गुजराती मरणपर्यन्त अत्यन्त निर्धनतामें जीवन बिताने लगेंगे तभी दूसरे गुजराती बड़ी संख्यामें गरीबीसे जीवनयापन करना स्वीकार करेंगे।

इस समय तो निर्धनताको आदर्श मानकर जिस हृदतक उसका पालन कर सकें, करना ही एकमात्र मार्ग है।

हमारे मार्गमें बड़ा विघ्न तो यह आ पड़ा है कि मैं बीमार पड़ गया और अपने ही जीवनमें निर्धनताका प्रयोग पूर्णरूपेण लागू न कर सका। इस समय जो प्रयोग मैं कर रहा हूँ, उसे तो मैं निर्धनताका प्रयोग ही नहीं मानता। मनुष्य अपनी दुर्बलताओंका आरोप दूसरोंपर करता है। जो मनुष्य अत्यधिक ठण्ड महसूस करता है और बहुत-से कपड़े पहनता है, वह यहीं मानता है कि सभीको इतने अधिक कपड़ोंकी जरूरत है। गर्म पानीसे नहानेवाले मनुष्यको ठण्डे पानीसे नहानेवाले व्यक्तिपर दया आती है; जो किसी सवारीके बिना इधर-उधर नहीं जा सकता, वह दूसरोंसे भी यही अपेक्षा रखता है। मेरी स्थिति भी ऐसी ही दयनीय है।

मुझे ऐसा लगता रहता है कि जो कुछ मैं खाता हूँ, वह दूसरे लोगोंको भी मिले। मैं दूसरे दर्जेमें यात्रा करता हूँ; इसलिए मैं दूसरोंसे तीसरे दर्जेमें यात्रा करनेके लिए कहनेमें संकोच करता हूँ।मुझे अन्य कई सुविधाओंकी जरूरत जान पड़ती है जो दूसरोंको सुलभ नहीं होती। मैं इस बातको सहन करता हूँ, किन्तु इससे मुझे मनमें संकोच होता है। मैं जानता हूँ कि यह मेरा मोह है, फिर भी वस्तुस्थिति तो यही है। जिस कामको मनुष्य स्वयं नहीं करता या कर नहीं सकता उसकी वकालत वह कितने भी जोरसे क्यों न करे, फिर भी लोगोंपर उसका असर नहीं पड़ता।

इसका अर्थ यह नहीं है कि निर्धनताका जीवन बितानेके सम्बन्धमें गुजरातकी प्रगति मेरे ऊपर निर्भर है। मैंने ऊपर जो-कुछ कहा है वह अपने साथियोंको लक्ष्य करके कहा है। यह इस बातकी स्वीकृति भी है कि मैं स्वयं गुजरातको इस मार्गपर और आगे ले जानेमें असमर्थ हूँ।

जो बात मेरे सम्बन्धमें सत्य है वही मेरे द्वारा स्थापित आश्रमके सम्बन्धमें भी सत्य है। आश्रममें अपरिग्रह इत्यादि व्रतोंके पालनका प्रयत्न पर्याप्त रूपसे किया जाता है। परखे हुए और निर्धनताको प्रतिष्ठित माननेवाले स्त्री और पुरुष आश्रममें रहते हैं। मेरा विश्वास यह है कि ये लोग दंभी नहीं हैं। इसके बावजूद हम सभी जितनी सादगी और गरीबीसे रहना चाहते हैं उसतक नहीं पहुँच पाये हैं। इसलिए सबको

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