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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

यथाशक्ति प्रयोग करनेकी छूट दी गई है जिससे किसीकी प्रगति न रुके। इसी कारण आश्रममें कुछ लोग स्वयंपाकी हैं। वहाँ प्रति व्यक्तिपर कमसे कम मासिक खर्च सात रुपया आता है। मैं मानता हूँ कि जो दो-तीन ब्रह्मचारी ऐसा प्रयोग कर रहे हैं, वे बहुत कष्ट उठाते हैं। जो इस हदतक नहीं पहुँच सके हैं वे धीरजसे अपने विशेष व्ययको अनिवार्य समझकर सहन करते हैं और उसमें जितनी कमी हो सकती है उतनी कमी करनेका प्रयत्न करते हैं। किन्तु यह तो मानना ही चाहिए कि यह आदर्शसे बहुत कम है। आश्रममें त्यागवृत्ति बढ़ानेके सम्बन्धमें अनेक प्रयत्न किये गये हैं, किन्तु उनमें बहुत सफलता नहीं मिली है। अपने इस अनुभवके कारण दूसरोंसे अधिक गम्भीर प्रयोग करवानेकी मेरी हिम्मत नहीं पड़ती।

कहा जा सकता है कि जो लोग [इस आदर्शपर चलनेके लिए] तैयार नहीं हैं, उनसे मैं यह क्यों न कहूँ कि वे तैयारी करनेके बाद सेवामें लगें। सार्वजनिक सेवाके सम्बन्धमें ऐसा नहीं किया जा सकता। जहाँ उद्देश्य सेवकोंको ही तैयार करना हो, वहाँ यह नियम लागू किया जा सकता है। किन्तु जहाँ उद्देश्य किसी विशिष्ट कार्यको करना हो वहाँ नीति-नियमोंको भंग किये बिना जो भी स्वयंसेवक मिल सकें और जुटाये जा सकें उनसे ही काम लेना उचित है। हमारा एक उद्देश्य है, अन्त्यज बालकोंको पढ़ाना। इसके लिए केवल त्यागी शिक्षक मिलें तो अच्छा। यदि न मिलें और अपने पास धन हो तो अच्छा वेतन देकर भी चरित्रवान शिक्षक रखने चाहिए। चरखे और खादीका प्रचार करना भी हमारा उद्देश्य है। उसे पूरा करनेके लिए हमें जितनी सुविधा हो, उसके अनुसार जो गरीबीमें नहीं रह सकते ऐसे चरित्रवान सेवक रखने ही चाहिए। सब कामोंको एक साथ करनेका प्रयत्न करनेमें सब-कुछ खो बैठनेकी स्थिति आ जाती है।

इस प्रकार अपने उद्देश्योंकी प्राप्तिके लिए प्रयत्न करते हुए यदि हम गरीबीको भी अपना आदर्श मानकर चलें तो अन्तमें हम उसको भी पा लेंगे——यही मेरा अभिप्राय है और अनुभव भी है।

यह तर्क चाय आदि अन्य वस्तुओंके सम्बन्धमें भी लागू होता है। हम आज लोगों को खाने-पीनेकी आदतोंको सुधारने नहीं बैठे हैं। इसलिए हमें चाय पीनेवाले सेवककी सेवाओंको भी अवश्य स्वीकार करना चाहिए।

ऐसे सब मामलोंमें हमें विवेकसे काम लेने की जरूरत है। यह संसार विचित्र है। हममें से कुछ लोग इन अनेक जंजालोंसे अलिप्त रहकर जीवन व्यतीत करनेका प्रयत्न कर रहे हैं। कुछ लोग स्वराज्यका अर्थ धर्मराज्य या रामराज्य समझते हैं। वे अनीतिको कभी सहन नहीं कर सकते। उनकी दृष्टिमें स्वराज्यका मार्ग मोक्षका मार्ग है। स्वराज्य उस मार्गमें एक महत्त्वपूर्ण मंजिल है। उनकी मान्यता है कि वे इस मंजिलको छोड़कर मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकते। किन्तु स्वराज्यके इस अर्थसे सभी लोग सहमत नहीं हैं। फिर भी वे जिस स्वराज्यको चाहते हैं, उसका समावेश ऊपर दी हुई कल्पनामें हो जाता है, इसलिए उक्त मुमुक्षु उनका साथ नहीं छोड़ सकते। कितने ही ऐसे लोग हैं जो सुराज उराज कुछ नहीं जानते; पर उनके लिए चरखा सर्वस्व है। वे करोड़पति होनेपर भी चरखा-धर्म स्वीकार करते हैं, वे हिन्दुस्तानकी