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स्वयंसेवकके गुण

गरीबी दूर करना चाहते हैं। इन्हें भी उक्त मुमुक्षु अपने साथ रखना चाहते हैं, क्योंकि चरखा उनके स्वराज्यका एक आवश्यक अंग है। इसलिए वह मुमुक्षु जिससे जितना त्याग मिल सकता है उससे उतना लेकर अपना रास्ता तय करता है और शुरूकी मंजिलोंका बोझ हल्का करता है।

मैं चाहता हूँ कि कोई मेरे इस उत्तरका विपरीत अर्थ न निकाले। यदि आज गरीब सेवकोंका दल मिल सके तो मुझे बहुत प्रसन्नता होगी। मैं जानता हूँ कि यदि ऐसा दल मिल जाये तो स्वराज्य बहुत निकट आ जायेगा। लोगोंको यह बात पूर्णरूपसे ध्यानमें रखनी चाहिए। किन्तु साथ ही उन्हें अपनी दुर्बलताओं और त्रुटियोंको भी याद रखना चाहिए। यही प्रेमपन्थ है। हमें अपने सम्बन्धमें जितना कठोर होना चाहिए दूसरोंके सम्बन्धमें उतना ही उदार रहना चाहिए। यह अहिंसाका मार्ग है। हमें अपने त्यागपर कभी अभिमान नहीं करना चाहिए और दूसरोंके कम त्यागका कभी अनादर नहीं करना चाहिए। ऐसा भी होता है कि जो मनुष्य पाँच मन बोझा उठा सकता है उसे अमुक बोझ उठानेमें अपनी पूरी शक्ति नहीं लगानी पड़ती और जो एक मन बोझ उठा सकता है, उसे अपनी पूरी शक्ति लगा देनी होती है। इस मामलेमें एक मन बोझ उठा सकनेवाला मनुष्य ही सच्चा सेवक है। इसलिए हमें दूसरोंका काजी बननेके बजाय अपना ही काजी बनना चाहिए और अपने भीतर त्याग करनेकी जितनी क्षमता हो उसका उपयोग करना चाहिए और दूसरे लोग जितना त्याग करें उसको द्वेषरहित होकर प्रेमपूर्वक स्वीकार करना चाहिए।

ऊपरके पत्रमें एक प्रश्न है जिसका उत्तर तो दिया जा चुका है। स्वयंसेवकोंका धर्म है कि वे धनी हों या निर्धन, गाँवोंमें जाकर गाँवोंके लोगोंपर भाररूप हरगिज न बनें। हमें उनको कमसे-कम तकलीफ देकर निर्वाह करना चाहिए और यदि हम उनको थोड़ा-सा कष्ट दें भी तो उसका बदला अपनी सेवासे दे देना चाहिए। हमें उनको कातने और धुनने आदिकी क्रियाएँ स्वयं प्रयोग करके सिखानी चाहिए और इस प्रकार उनके सूत और पूनियोंका संग्रह बढ़ाना चाहिए। किन्तु इस प्रसंगमें भी हर स्थानमें, हर समय और प्रत्येक व्यक्तिके सम्बन्धमें एक ही नियम लागू नहीं किया जा सकता। गाँवोंके लोगोंके मनपर ऐसी छाप नहीं पड़नी चाहिए कि स्वयंसेवक गाँवमें मौज करने या सैर-सपाटके लिए आते हैं। ऐसी बातोंके सम्बन्धमें कोई एकान्तिक सिद्धान्त स्थिर नहीं किया जा सकता। मैं देखता हूँ कि यह नियम कि हमें अपने सत्कारके सम्बन्धमें किसी भी गाँवके लोगोंको एक सामान्य मर्यादासे आगे न बढ़ने देना चाहिए, अनुभवसे दृढ़ होता जा रहा है।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, १४-६-१९२५