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१३७. मेरा कर्त्तव्य

एक सज्जन लिखते हैं :[१]

हम देखते हैं कि लेखकने इस पत्रमें एक सामान्य भूल की है; अधिकांश लोग प्रायः यह भूल करते हैं। यह मानना कि उपदेश देनेका बड़ा प्रभाव है, हमारा मिथ्या मोह है। यह मोह इस पत्रमें भी है। हम अनन्त कालसे यहीं अनुभव करते आ रहे हैं कि उपदेशका प्रभाव बहुत ही कम होता है। आज सैकड़ों साधु उपदेश दे रहे हैं। सैकड़ों ब्राह्मण नित्य, 'गीता', 'भागवत' आदिका पाठ कर रहे हैं। लेकिन कहा यही जा सकता है कि उसका कुछ भी असर नहीं होता। यह सच है कि उपदेशकका कुछ असर होता हुआ हम देखते हैं, लेकिन वह असर उसके उपदेशका नहीं, बल्कि उसके चारित्र्यका होता है। यदि वह जितना आचरण कर सकता है उससे अधिकका उपदेश देता है तो उसका कुछ भी असर नहीं होता। सत्यकी ऐसी ही महिमा है। उसे हम भाषाके आवरणमें कितना ही ढाँके, वह ढँक नहीं सकता। यदि मुझमें हिमालयपर चढ़नेकी शक्ति न हो और मैं फिर भी दूसरोंको उसपर चढ़नेका उपदेश दूँ तो उसका कुछ भी असर न होगा। लेकिन यदि मैं उसपर केवल चढ़कर दिखाऊँ तो सैकड़ों लोग मेरा अनुगमन करेंगे। मनुष्यकी करनी ही सच्चा उपदेश है।

दूसरे, मनुष्यमें कोई विशेष उपदेश देनेकी योग्यता भी होनी चाहिए। मैं पशु-हिंसा नहीं करता। फिर भी मुझे स्वीकार करना चाहिए कि मुझमें पशु-हिंसाको बन्द करानेकी योग्यता नहीं है। मैं यह जानता हूँ कि पशुओंके प्रति हमारा कुछ कर्त्तव्य है। लेकिन मैं दूसरोंको उसे समझानेमें असमर्थ हूँ। उसके लिए तो मुझमें बहुत अधिक पवित्रता, बहुत अधिक दयाभाव और बहुत अधिक संयम होना चाहिए। उसके बगैर मुझे सूक्ष्म ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता और उस ज्ञानके बिना मुझे उपयुक्त भाषा प्राप्त नहीं हो सकती।

बिना ऐसा ज्ञान प्राप्त किये आत्मविश्वास उत्पन्न नहीं होता। मैं पशु-हिंसाका त्याग करानेकी शक्ति रखता हूँ, यह आत्मविश्वास मुझमें नहीं है।

लेकिन मैं तो ईश्वरको माननेवाला हूँ। मुझमें पशु-सेवाकी वृत्ति बहुत तीव्र है। मनुष्य तो अपना दुःख व्यक्त कर सकता है और उससे मुक्त होनेका कुछ प्रयत्न भी कर सकता है। पशुओंमें यह शक्ति नहीं होती, इसलिए उनके प्रति हमारा कर्त्तव्य दुहरा है। लेकिन यह जानते हुए भी और उसके लिए शक्ति प्राप्त करने की इच्छा रखते हुए भी, मुझे उनकी सेवा करने की शक्ति न होनेके कारण बड़ी लज्जा मालूम होती है। लेकिन उसके लिए मैं ईश्वरको दोष देता हूँ। उसने मुझमें ऐसी शक्ति क्यों नहीं दी? इसके लिए मैं उससे हमेशा झगड़ता हूँ और विनय करता हूँ। लेकिन

  1. पत्र यहाँ नहीं दिया गया है। इसमें लेखकने गांधीजीसे निवेदन किया था कि चूँकि बंगालमें पशु-हिंसा बहुत होती है; अतः वे बंगालके लोगोंको जीव-हिंसा बन्द करनेका उपदेश दें।