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मेरा कर्त्तव्य

ईश्वर तो अपनी मर्जी चलाता है। जब वह किसीकी नहीं सुनता, तब मेरी क्यों सुनेगा? ऐसा हो सकता है कि वह मेरी बात औरोंसे जल्दी सुन ले। लेकिन जब वह मुझमें ऐसी शक्ति देगा तब मैं इन सज्जनको विश्वास दिलाता हूँ कि उनके कहनेकी राह न देखूँगा। तबतक मेरी तपश्चर्या जारी रहेगी। मैं जिस कार्यमें आज संलग्न हूँ, क्या उसे करते-करते ही मुझमें यह सेवा करनेकी शक्ति नहीं आयेगी? मेरा विश्वास है कि मैं कृपण नहीं हूँ। मैं अपनी सब शक्तियोंको कृष्णार्पण कर चुका हूँ। इसलिए यदि मुझमें पशु-हिंसाको वन्द करानेकी शक्ति आ जायेगी तो मैं उसका उपयोग करनेमें विलम्ब न करूँगा।

लेकिन इस बीच जो अपरिहार्य है, उसे तो सहन ही करना चाहिए। इस संसारमें अनेक स्थानोंपर निर्दोष मनुष्योंपर अत्याचार किये जा रहे हैं, हम उन्हें बन्द करानेका दावा कहाँ करते हैं? हम यह समझकर कि यह हमारी शक्तिके बाहर है, जगतका कल्याण चाहते हुए भी चुप रहते हैं। हम अशक्तिके कारण ही देशभक्तिको एक अलग गुण मानकर विकसित कर रहे हैं। लेकिन देशभक्ति धर्मसम्मत है। उससे जगतका अकल्याण नहीं होता। संसारका अकल्याण करके अपने देशका हित साधन करना मिथ्या देशभक्ति है। लेकिन स्वदेशकी धर्मसम्मत सेवामें जिस प्रकार संसार-भरकी सेवाका समावेश हो जाता है उसी प्रकार मेरी मनुष्य सेवामें पशु-सेवाका भी समावेश हो जाता है। यह मेरी मान्यता है; क्योंकि मनुष्य-सेवा और पशु-सेवामें कोई विरोध नहीं है।

आज हमारे देशमें एक प्रकारका धर्माडम्बर फैला हुआ है। हम दयाके उन कार्योंको तो करनेका विचार करते हैं जिन्हें हम कर नहीं सकते और जिनके करनेका कुछ अर्थ नहीं है; लेकिन दयाके उन कार्योंको नहीं करते जिन्हें हम कर सकते हैं। धीरा भगतकी[१] भाषामें कहें तो हम निहाईकी चोरी करते हैं और सूईका दान करनेका ढोंग करते हैं। 'गीताकी' भाषामें कहें तो स्वधर्मका, जो हमारे लिए सुलभ है, थोड़ा-सा भी पालन करना छोड़कर हम परधर्म पालनके बड़े-बड़े विचार करते हैं और 'इतोभ्रष्टस्ततोभ्रष्टः' हो जाते हैं। ऐसी भूलोंसे हमें बचना चाहिए, यह बात समझानेके लिए ही मैंने पूर्वोक्त सुझावका उत्तर देना और यह दिखानेका प्रयत्न करना उचित समझा कि मैं पशु-हिंसा बन्द करानेके श्रेष्ठ धर्मका पालन क्यों नहीं आरम्भ करता।

हम जगतके कर्ता नहीं हैं। हम सर्वशक्तिमान भी नहीं हैं। हम लोगोंमें जो शक्ति है यदि हम उसका सदुपयोग करें तो वह शक्ति आप ही बढ़ेगी और हम ईमानदार होंगे तो इस शक्तिके बढ़नेपर उसका उपयोग अवश्य करेंगे।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, १४-६-१९२५
 
  1. गुजराती कवि।