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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

सकता हूँ? परन्तु उनके स्थानपर बैठकर मैं करूँ क्या? यदि जामिया असहिष्णुताकी भावना पैदा करती है, तो यह ख्वाजाका ही तो दोष है। वह उसके प्रधान हैं। उसकी शुरुआत भलेसे-भले मुसलमानोंने की थी। अगर उसमें बुराई आ गई हो तो सुधार किया जा सकता है, लेकिन मेरी रायमें उसकी तरफसे ऐसी लापरवाही नहीं की जानी चाहिए कि वह खत्म ही हो जाये। इसलिए उसे ख्वाजाका पूरा समय और ध्यान माँगनेका हक है और तभी वह फलफूल सकती है। ख्वाजा केवल नामके प्रधान तो नहीं हैं। वे तो इस आन्दोलनके प्राण हैं। वे प्रशासक भी हैं। इसलिए मैं सिद्धान्तके आधारपर नहीं, नीतिके आधारपर ही आपत्ति उठा रहा हूँ और इस मामलेमें अभी नीति तो सिद्धान्तसे भी अधिक महत्त्व रखती है। ख्वाजाके सामने अब चुनाव करानेका बस यही मार्ग रह गया है कि वह कालेजके लिए अपने समान ही योग्य अन्य व्यक्ति ढूँढ लें।

और फिर मैं अकेला ही तो सलाह देनेवाला नहीं हूँ। ख्वाजा यदि अली बन्धुओंसे मशविरा न करें तो भी हकीम साहब और डा॰ अन्सारीसे तो करना पड़ेगा। वे उनके सह-न्यासी हैं। आशा है कि अब आप मेरी कठिनाई समझ गये होंगे। मुझे लगता है कि मैं पूरे दिलसे इस पक्षकी मदद कर रहा हूँ। मैं अपने मित्रोंके सन्तोषको बड़ा महत्त्व देता हूँ, पर मैं इस संस्थाकी सहायता अपने मित्रोंके संतोषकी अपेक्षा अपने स्वयंके संतोषके लिए ही अधिक करना चाहता हूँ।

अगर इससे उन्हें स्वतन्त्र निर्णय करनेमें मदद मिल सके तो आप इस पत्रको ख्वाजाको दिखा सकते हैं।

आपका सच्चा,
मो॰ क॰ गांधी

[पुनश्च :]

आशा है कि आपके पहले पत्रके उत्तरमें लिखा मेरा पत्र आपको मिल गया होगा।[१]

[अंग्रेजीसे]

महादेव देसाईकी हस्तलिखित डायरीसे।

सौजन्य : नारायण देसाई

 
  1. गांधीजीने २३ मईको ख्वाजाको एक पास्टकार्ड लिखा था लेकिन वह उपलब्ध नहीं है। २५ को इसकी प्राप्ति स्वीकार करते हुए, ख्वाजाने लिखा था, "पण्डित मोतीलाल नेहरू मुझे राज्य परिषद्के लिए खड़ा करनेपर जोर दे रहे हैं। मैंने आपके आदेशकी माँग की थी, क्योंकि मैंने उन्हें लिखा था कि मैंने एक वर्षतक के लिए अपनी सेवाएँ आपकी मरजीपर छोड़ दी हैं। आपकी अनुमतिके बिना मैं कुछ भी नहीं करूँगा। पहाड़ जाते समय रास्तेमें पण्डितजीसे मेरी मुलाकात हो गई और उन्होंने आपकी इंजाजत लेनेकी जिम्मेदारी अपनेपर ले ली है, किन्तु मैंने आपसे कोई आदेश मिले बिना इसकी घोषणा नहीं की है।