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१४२. पत्र : मदाम आँत्वानेत मिरबेलको

[स्थायी पता : साबरमती]
१५ जून, १९२५

प्रिय मित्र,

आपका पत्र पाकर बड़ी प्रसन्नता हुई।[१] लेकिन केवल मुझसे मिलनेके उद्देश्यसे एक इतनी लम्बी और खर्चीली यात्रा करनेके लिए मैं आपको उत्साहित नहीं करूँगा। और न ही आपकी आत्मिक उन्नतिके लिए आपका मुझसे मिलना आवश्यक है। वह तो ईश्वरके नामपर की गई सेवाका फल है।[२]

हृदयसे आपका,
मो॰ क॰ गांधी

मदाम आँत्वानेत मिरबेल
१००, रयू ब्रूल मेजाँ
लाइल——नॉर्ड, फ्रांस
[अंग्रेजीसे]

महादेव देसाईको हस्तलिखित डायरीसे।

सौजन्य : नारायण देसाई

१४३ : पत्र : शरतचन्द्र बोसको

१५, जून, १९२५

प्रिय शरत् बाबू,

मुझे खुशी है कि आप तुरन्त ही यह समझ गये कि दूसरी सभा करना एक जवाबी प्रदर्शन ही माना जायेगा। अहिंसा तो प्रेम है। वह मौन और करीब-करीब गुप्त रूपसे अपना असर पैदा करती है। कहावत भी है कि दाहिना हाथ नहीं जानता कि बाँया क्या दे रहा है। मित्रों और सगे-सम्बन्धियोंके बीच प्रेमका कोई करिश्मा नहीं

  1. २६ जनवरी, १९२५ के इस पत्रमें मिरबेलने अपना तथा एक ३६ वर्षीय विवाहिता महिलाका परिचय दिया था जो अपने धर्मको धर्मान्धता और अनुदारतासे हताश और थियोसोफीके साहित्यसे बहुत प्रभावित थीं। अपने 'करुणामूर्ति गुरु' की खोजमें ११ साल इन्तजार करनेके बाद वह गांधीजीको शिष्या बनना चाहती थी और चाहती थी कि गांधीजी उनके आश्रम पहुँचनेकी कोई तारीख तय कर दें।
  2. इसका जवाब मिरबेलने ६ जुलाईको दिया। देखिए खण्ड २८, "पत्र : मदाम आँखानेत मिरबेलको", १३ अगस्त, १९२५ ।