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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

होता। वे एक-दूसरेको स्वार्थवश प्यार करते हैं, प्रबुद्धताके आधारपर नहीं। वह तो तथाकथित विरोधियोंके बीच ही अपना करिश्मा दिखाता है। इसलिए जरूरत इस बातकी है कि आदमी जितनी भी दयालुता और दानवीरता दिखा सकता है वह सारीकी-सारी अपने विरोधी या आततायीके प्रति दिखाई जाने।

उपर्युक्त बातोंको ध्यानमें रखते हुए कृपया विचार कीजिए और निम्नलिखित उन आरोपोंका उत्तर दीजिए जो कल आपके चले जानेके बाद उन्होंने आपपर लगाये थे।[१]

इन आरोपोंमें से एकपर भी विश्वास करना मेरे लिए असम्भव है। आपको अभी इनका उत्तर देनेकी जरूरत नहीं। जब मैं आपके पास आऊँ तब आप जवाब दे सकते हैं। लेकिन यदि आप कोई दो टूक जवाब लिखित रूपमें देना ही चाहें तो दे सकते हैं।

हृदयसे आपका,
मो॰ क॰ गांधी

[अंग्रेजीसे]

महादेव देसाईकी हस्तलिखित डायरीसे।

सौजन्य : नारायण देसाई

 

१४४. एक पत्रके बारेमें[२]

[१६ जून, १९२५ से पूर्व]

सरदार जोगेन्द्रसिंहका यह पत्र[३], जिसे उन्होंने अपने अन्तस्तलसे लिखा है, मैं बड़ी खुशीके साथ छाप रहा हूँ। मैं उनकी सलाहकी कद्र करता हूँ। सरदारजीने जिस बातचीतका जिक्र किया है वह मुझे अच्छी तरह याद। वे स्वराज्यवादियोंके साथ समझौतेके[४] औचित्यपर आपत्ति करते हैं। इस समझौतेको हुए अब नौ महीने हो चुके हैं, परन्तु मुझे उसपर अफसोस होनेका कोई कारण नहीं दिखाई दिया। मैंने किसी उसूलको कुरवान नहीं किया है। कांग्रेसपर किसी एक आदमीका इजारा नहीं है। वह लोकतन्त्रात्मक संस्था है और मेरी रायमें उसका मताधिकार इतना व्यापक

  1. साधन-सूत्रमें यहाँ एक वाक्य और है, जो स्पष्टतः ही महादेव देसाईंका लिखा है। वाक्य इस प्रकार है, ये आरोप हैं, रचनात्मक कार्यक्रममें बाधा डालना, कांग्रेस-सदस्योंको धोखा देना, बिना अधिकार सूत जमा करना, कांग्रेसका फर्नीचर लौटानेसे इनकार करना आदि।
  2. जिसपत्रपर गांधीजीने यह टिप्पणी लिखी है, वह चि॰ रं॰ दासकी मृत्यु अर्थात् १६ जून, १९२५ से पूर्व लिखा गया था।
  3. पत्रके पाठके लिए देखिए परिशिष्ट १ ।
  4. देखिए खण्ड २५, पृष्ठ ३०७-८ ।