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एक पत्रके बारेमें

और इतना बुद्धि-सम्मत है, जितना दुनियामें अबतक कहीं देखनेमें नहीं आया; क्योंकि यह मताधिकार शारीरिक श्रमके गौरवको वैधानिक स्वीकृति देता है। मैं तो यह चाहता था कि यही एक- मात्र कसोटी होती। असत्य और हिंसाका आधार लेकर चलनेवालोंको छोड़कर उसमें सब प्रकारके मतावलम्बियोंका समावेश होता है। स्वराज्य-पार्टीवालोंको मतदानके आधारपर अपनी बात मनवानेका पूरा अधिकार था। मैं उसके लिए तैयार न था; क्योंकि मैंने देखा है कि इस तरह राय लेनेसे लोगोंमें नीति-भ्रष्टता फैलती है——उस अवस्थामें तो और भी, जबकि मतदाता स्वतन्त्र रूपसे निर्णय करनेके आदी न हों। एक विचारवान् आदमीकी तरह मैं स्वराज्यवादी लोगोंकी बढ़ती हुई शक्तिको माने बिना नहीं रह सकता था। वे रचनात्मक कार्यक्रमको प्रधान स्थान देनेके लिए रजामन्द थे। उनसे इससे अधिक उम्मीद नहीं की जा सकती थी। यदि मैंने उन्हें मतदानके जरिये फैसला करनेपर मजबूर किया होता तो उन्होंने कौंसिल-प्रवेशको राष्ट्रीय कार्यक्रम बना लिया होता——इतना ही नहीं, लड़ाईके आवेशमें उन्होंने रचनात्मक कार्यक्रमको ही किनारे उठाकर रख दिया होता या उसे एक नगण्य स्थान दे दिया होता। यह तो हुई सिद्धान्तकी बात।

व्यवहारमें इसी समझौतेके द्वारा अधिकांशतः परिवर्तनवादी और अपरिवर्तनवादी लोगोंका मनमुटाव दूर हो गया है। इसके द्वारा दोनों दलोंके लोग परस्पर मेल रखते हुए संयुक्त कार्यक्रमपर अमल करने लगे हैं। इस समझौतेके लाभ दक्षिण भारतमें साफ नजर आ रहे हैं। बंगालमें भी देख रहा हूँ। मैं इस रायसे सहमत नहीं हूँ कि स्वराज्यवादी असफल हुए हैं। चुनावकी धूमके समय दिये वादोंको मैं बहुत महत्त्व नहीं देता। यह एक मानी हुई प्रथा है कि शादीके समय की गई प्रतिज्ञाओंकी तरह चुनावके समय दिये गये वचनोंको अत्यधिक महत्त्व नहीं देना चाहिए। यदि हम एक बार इस बातको कबूल कर लें कि कौंसिल-प्रवेश हर दृष्टिसे बुरा नहीं है तो फिर स्वराज्यवादियोंको कौंसिलोंमें किये गये अपने कामपर शर्मिन्दा होनेकी कोई वजह नहीं। उन्होंने कौंसिलोंमें अपने विचार निर्भीकताके साथ प्रकट किये हैं। उन्होंने सरकारको मतदानमें बार-बार हराया है। उन्होंने यह दिखला दिया है कि सरकारपर स्वयं उसके बनाये मतदाताओंका भी विश्वास नहीं है। उन्होंने अनुशासन और सुदृढ़ ऐक्यका जैसा परिचय दिया है वैसा आजकल कौंसिलके सदस्य कहीं नहीं दे पाये हैं और सबसे बढ़कर (कमसे-कम मेरे लिए) उन्होंने उन शानदार वर्जित स्थानोंमें खादीका प्रवेश करा दिया है और वहाँ जाते हुए वे अपना रोजमर्राका राष्ट्रीय लिबास पहनते हुए नहीं सकुचाये हैं, हालाँकि एक जमाना था जब उस लिबासमें वहाँ जाते हुए लोग डरते या शरमाते थे। उस लिबासको हम लोग सिर्फ घरपर ही पहनते थे। क्या स्वराज्यवादियोंकी कार्रवाइयोंने सरकारको सोचने पर मजबूर नहीं कर दिया है? हाँ, यह सच है कि सरकारने लोकमतकी परवाह नहीं की है। यह भी सच है कि खिलाफ राय होते हुए भी उसने अपनी ही मनमानी की है। पर स्वराज्यवादी क्या कर सकते थे? यदि उनके पास शक्ति होती तो वे सरकारका तख्ता उलट देते और उसके मतका अनादर कर देते। वह शक्ति आना अभी