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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

बाकी है। वह धीरे-धीरे, परन्तु निश्चित रूपसे आ रही है। सरकार जानती है कि वह सदा-सर्वदा लोकमतके खिलाफ जानेकी जुर्रत नहीं कर सकती। स्वराज्यवादियोंने उसे उसकी स्थितिकी कमजोरीका भान पहलेसे अधिक करा दिया है। मेरा उनके साथ राजनैतिक मतभेद है। परन्तु उनकी दिलेरी, अनुशासन-प्रियता और देशभक्तिका मैं आदर करता हूँ। और अपने सिद्धान्तकी रक्षा करता हुआ मैं उस दलको सशक्त बनाने और उसे सहायता पहुँचानेकी भरसक कोशिश करनेको तैयार हूँ। मैं कांग्रेसका प्रधान तभीतक हूँ जबतक वे मुझे वहाँ रखना चाहें। जहाँ मैं उनकी सहायता नहीं कर सकता वहाँ मुझे उनके काममें बाधा हरगिज नहीं डालनी चाहिए।

मेरे नजदीक तो अहिंसात्मक असहयोग एक धर्म है। मैं सरदारजीके इस कथनका हृदयसे समर्थन करता हूँ कि "असहयोग सार-रूपमें सहयोग ही है और सैन्य-बलसे अधिक सशक्त है।" यदि मैं भारतके अधिकांश शिक्षित समुदायको अपने मतका बना सकूँ तो स्वराज्य और अधिक प्रयत्नके बिना हासिल हो सकता है। मेरा यह विश्वास दिनपर-दिन दृढ़ होता जा रहा है कि अहिंसाके बिना भारतको ही क्या, सारी दुनियाको, शान्ति और सुख नहीं मिल सकता। इसलिए मेरे नजदीक चरखा केवल सादगी और आर्थिक स्वाधीनताका ही प्रतीक नहीं है, बल्कि शान्तिका भी प्रतीक है। क्योंकि यदि हम हिन्दू, मुसलमान, सिख, ईसाई, पारसी और यहूदी——सब मिलकर भारतके घर-घरसें चरखा फैला दें तो हम न केवल सच्ची एकताको मूर्तिमन्त कर सकेंगे और विदेशी कपड़ेको देशसे हटा सकेंगे, बल्कि हम आत्मविश्वास और संगठन-क्षमता भी प्राप्त कर लेंगे, जिसकी बदौलत हिंसाका जरा भी सहारा लिए बिना स्वाधीनता प्राप्त की जा सकती है। इसलिए मेरी दृष्टिमें चरखेकी सफलताका अर्थ है अहिंसाको विजय——ऐसी विजय जो कि सारी दुनियाके लिए एक पदार्थ पाठ होगा।

सरदारजी सलाह देते हैं कि चरखके साथ ही गाँवोंमें बिजली भी दाखिल की जाये। मेरा खयाल है कि वे पंजाबके थोड़ेसे गाँवोंको ही जानते हैं। यदि वे मेरी तरह भारतके जीवनसे परिचित होते तो वे बिजलीकी बात इतनी निश्चयात्मकताके साथ न लिखते। भारतकी मौजूदा स्थितिमें हमारे देहातोंमें घर-घर बिजली पहुँचाना व्यवहारतः नितान्त असम्भव है। हो सकता है कि वह समय भी आए। पर वह तबतक नहीं आ सकता जबतक चरखा घर-घरमें प्रविष्ट न हो जाए। इसलिए मैं महत्त्वहीन, छोटे-छोटे या बेमतलबके मसलोंको उठाकर और झूठी उम्मीदें दिलाकर लोकमतको भ्रमित नहीं करना चाहता। यदि चरखेका प्रयोजन जैसा सरदारजी कहते हैं या वे मानते हैं उतना ही हो तो भी हमें उसीके, केवल उसीके, प्रचारमें अपनी सारी शक्ति तबतक लगाते रहना चाहिए, जबतक हमें सफलता प्राप्त न हो जाए। और जिस समय हम उसके द्वारा देहातियोंका जीवन जीने योग्य बना देंगे और बेकारीके दिनोंके लिए उनके वास्ते एक प्रतिष्ठित और लाभप्रद बन्धा तजवीज कर देंगे, उस समय उनके जीवनको खुशहाल बना सकनेवाली अन्य तमाम चीजें अपने-आप चली आयेंगी। मैं सरदारजीको यकीन दिलाता हूँ कि मैं यन्त्र-मात्रका विरोधी नहीं हूँ। यों तो खुद चरखा भी एक यन्त्र ही है। पर मैं उन तमाम यन्त्रोंका कट्टर दुश्मन हूँ, जो गरीबोंका शोषण करनेके लिए तजवीज किये गये हों।