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करता है। इसलिए जबतक चरखेसे अच्छी कोई दूसरी चीज हाथ नहीं आती तबतक हमारे पास यही एक साधन रहेगा।

राष्ट्रीयता बनाम अन्तर्राष्ट्रीयता

मुझे दार्जिलिंगमें एक महाशय मिले और उन्होंने मुझे एक परिचारिकाकी बात बताते हुए कहा कि वह परिचारिका औरोंको हानि पहुँचाकर अपने राष्ट्रकी सेवा न करना अच्छा समझती है। मैं समझ गया कि यह बात मुझे उपदेश देनेके लिए कही जा रही है। मैंने सौम्य भावसे उन्हें बताया कि यद्यपि वे मेरे लेखों और कार्योंको समझनेका दावा करते हैं फिर भी वे उनको समझ नहीं पाये हैं। मैंने उनसे यह भी कहा कि मेरी देशभक्ति संकुचित नहीं है और उसमें केवल भारतका ही नहीं, सारी दुनियाका कल्याण समाविष्ट है। फिर मैंने उनसे कहा कि मैं एक विनीत मनुष्य हूँ। मैं अपनी मर्यादाओंको जानता हूँ, इसीलिए मैं केवल अपने देशकी सेवा करके ही सन्तुष्ट हूँ——हाँ, मैं इस बातकी चिन्ता जरूर रखता हूँ कि मेरे हाथसे कोई ऐसा काम न हो जिससे किसी भी दूसरे देशको कुछ हानि पहुँचें। मेरी समझमें किसी व्यक्तिके लिए राष्ट्रवादी बने बिना अन्तर्राष्ट्रवादी बनना असम्भव है। अन्तर्राष्ट्रवाद उसी अवस्थामें सफल होगा जब राष्ट्रवाद मजबूत होगा अर्थात् जब भिन्न-भिन्न देशोंके लोग सुसंगठित होकर एक आदमीकी तरह मिल-जुलकर सारे काम कर सकेंगे।

राष्ट्रवाद बुरी बात नहीं है; बुरी बात तो है संकीर्णता, स्वार्थपरता और अलगावका भाव, जो वर्तमान राष्ट्रोंके कष्टों का मूल है। हर राष्ट्र दूसरेको हानि पहुँचाकर अपना फायदा करना चाहता है, दूसरेको तबाह करके अपनेको आबाद करना चाहता है। मेरा खयाल है कि भारतके राष्ट्रधर्मने एक जुदा ही रास्ता दिखाया है। वह सारी मनुष्य-जातिकी हित-साधना और सेवाके लिए अपनेको सुसंगठित या पूर्ण विकसित करना चाहता है। मुझे अपनी देशभक्ति या अपने राष्ट्रवादके विषयमें कोई सन्देह नहीं है। ईश्वरने मुझे भारतवर्षके लोगोंमें जन्म दिया है, इसलिए यदि मैं उनकी सेवामें गफलत करूँ तो मैं अपने सिरजनहारका अपराधी बनूँगा। यदि मैं उनकी सेवा करना नहीं जानता तो मुझे मानव-जातिकी सेवा करना कभी नहीं आयेगा। और जबतक मैं अपने देशकी सेवा करता हुआ किसी दूसरे राष्ट्रको नुकसान नहीं पहुँचाता तबतक मैं पथभ्रष्ट नहीं हो सकता।

बंगालमें हिन्दी

हिन्दीके कुछ प्रेमी इस बातसे संतुष्ट नहीं हैं कि मैं बंगालमें केवल लोगोंके सम्मुख हिन्दीमें बोलनेका आग्रह करूँ और सभाओंमें समय या असमय उसकी हिमायत करूँ। बंगाल साहित्य परिषद्की सभामें कुछ चुने हुए लोग थे और वे भी अंग्रेजीके विद्वान् थे। मैंने उनकी अनुमति लेकर वहाँ भी हिन्दीमें ही भाषण किया था। ये हिन्दीप्रेमी मुझसे यह भी चाहते हैं कि मैं बंगालमें भी मद्रासकी भाँति ही हिन्दीके वर्ग चलाऊँ तथा हिन्दीका प्रचार करूँ। परन्तु मुझे दुःख है कि मैं उनकी इच्छाको पूर्ण नहीं कर सकता। मेरी साधन-सामग्री अब खतम होनेपर आ गई है। फिर अट्टा-

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