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१५६. एक अपील[१]

[१७ जून, १९२५]

प्यारे देशभाइयो;

राष्ट्र देशबन्धु चित्तरंजन दासके लिए शोक मना रहा है। पर हम शोक क्यों मनायें? हालाँकि देशबन्धु हमारे बीचसे चले गये हैं, फिर भी वे हमारे मनमें बने रहेंगे। उन्होंने काम जहाँ छोड़ा है, वहींसे हमें उसे उठा लेना चाहिए। हमारा पहला काम मृतात्माके प्रति यथोचित सम्मानसे शुरू हो। हमारा स्नेह अन्धा नहीं, प्रज्ञापूर्ण होना चाहिए।

अस्थिअवशेष जब स्यालदा स्टेशनपर पहुँचेगा, तब भीड़ बहुत ज्यादा हो जाने की सम्भावना है। यदि हम चाहते हैं कि हर व्यक्ति अस्थिअवशेषके प्रति सम्मान प्रकट करनेकी अपनी इच्छा पूरी कर सके तो हमें इन नियमोंका पालन करना चाहिए :

१. शोर-शराबा नहीं होना चाहिए।

२. भीड़को गाड़ीकी तरफ नहीं बढ़ना चाहिए। लोग जहाँ-कहीं हों, उनको वहीं खड़े रहना चाहिए और धक्कामुक्की करके आगे नहीं बढ़ना चाहिए।

३. अर्थी निकलनेके लिए साफ रास्ता छोड़ रखना चाहिए।

४. कीर्तन करनेवालोंकी टोली और तैनात किये गये अन्य लोगोंके अतिरिक्त बिलकुल सामनेकी और और किसीको नहीं रहना चाहिए। जुलूसके साथ चलनेके इच्छुक लोग कृपया पीछे-पीछे चलें। उनको पंक्ति नहीं तोड़नी चाहिए।

५. श्मशान घाटपर लोगोंको अर्थीकी ओर नहीं बढ़ना चाहिए। उन्हें देह छोड़े तीन दिन हो चुके हैं; इसलिए उसमें विकृति होने लगी होगी। अतएव उसे अन्तिम दर्शनोंके लिए खोलकर नहीं रखा जा सकेगा।

६. कृपया याद रखिए कि दिवंगत देशभक्तकी स्मृतिके प्रति हमारे सम्मानका तकाजा इतना ही नहीं है कि हम उसके प्रति अपने स्नेहका बाह्य और क्षणिक प्रदर्शन करके रह जायें; बल्कि हमें अपने दिलोंमें देशबन्धुकी छोड़ी हुई विरासतके योग्य बननेका संकल्प करना है।

आपका सेवक,
मो॰ क॰ गांधी

[अंग्रेजीसे]
अमृतबाजार पत्रिका, १९-६-१९२५
 
  1. यह अपील पर्चोंके रूपमें बाँटी गई थी।