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एक घरेलू प्रकरण

ही हरिलाल मो॰ गांधीका पिता हूँ। वह मेरा सबसे बड़ा लड़का है। उसकी उम्र ३६ से ऊपर है। वह ४ बच्चोंका पिता है। उसकी सबसे बड़ी सन्तान १९ सालकी है। कोई १५ साल पहलेसे उसके और मेरे विचार भिन्न-भिन्न रहे हैं। इसलिए वह मुझसे अलहदा रहता है और १९१५ से उसका भरण-पोषण मैं नहीं कर रहा हूँ और न मैंने उसकी कोई व्यवस्था की है। मैंने हमेशा अपने बच्चोंको १६ सालकी अवस्थाके बाद अपना मित्र और बराबरीका माना है। मेरे बाह्य जीवनमें जो जबर्दस्त परिवर्तन समय-समयपर हुए उनका असर मेरे नजदीक रहनेवालोंपर, खास कर मेरी सन्तानपर हुए बिना नहीं रह सकता था। हरिलाल इन तमाम परिवर्तनों को देखता था, उसकी उम्र भी उन्हें समझने योग्य थी। इससे वह कुदरती तौरपर पश्चिमी रंग-ढंगसे प्रभावित हुआ, जो एक जमानेमें मेरे जीवनका भी रंग-ढंग था। उसके व्यापार सम्बन्धी कार्योंका मुझसे कोई सम्बन्ध न था। यदि मैं उसपर अपना प्रभाव डाल पाता तो आज वह मेरे अनेक सार्वजनिक कार्योंमें मेरे सहयोगीके रूपमें होता और साथ ही अच्छी-खासी रोजी भी कमा रहा होता। पर उसने बिलकुल जुदा और आजाद रास्ता अख्तियार किया। ऐसा करनेका उसे हक भी था। वह महत्वाकांक्षी था और आज भी है। वह धनी बन जाना चाहता है, सो भी आसानीसे। और बहुत करके उसके मनमें मेरे प्रति यह शिकायत भी है कि मैंने उसे तथा अपने अन्य पुत्रोंको उन दिनों, जब मैं उनके लिए कुछ कर सकता था, उन बातोंसे वंचित रखा जिनके द्वारा मनुष्य धनी बनता है और धनसे सुलभ होनेवाली ख्याति भी प्राप्त कर सकता है। इस पत्रमें उल्लिखित स्टोर उसने खोला था। उसमें मेरा किसी किस्मका भी सहयोग न था। मैंने अपने नामका उपयोग भी करनेकी अनुमति स्टोरवालोंको नहीं दी थी। मैंने न तो खानगी तौरपर, न जाहिरा तौरपर किसीसे उसके व्यवसायमें शरीक होनेकी सिफारिश की। जिन लोगोंने उसे सहायता दी, उन्होंने उस उद्योगके गुण-दोषका विचार करके ही दी थी। हाँ, यह जरूर है कि मेरा पुत्र होना उसके मार्गमें सहायक होगा। जबतक यह दुनिया कायम है, तबतक वह वर्णाश्रमके अपने विरोधके बावजूद आनुवंशिकताका लिहाज करती रहेगी। बहुतोंने अपने मनमें यह समझा होगा कि यह गांधीका लड़का है इसलिए भला, व्यवहारमें खरा, रुपये-पैसेके मामलेमें सावधानी बरतनेवाला तथा अपने पिताकी तरह ही विश्वसनीय होगा। मेरी उनके साथ सहानुभूति है; परन्तु इससे अधिक कुछ नहीं। उन कामोंके सिवा जो मेरे साथ किये जाते हैं या जिन्हें मैं अपने नामपर करनेकी इजाजत देता हूँ या जिनके लिए अपनी तरफसे प्रमाणपत्र देता हूँ, किसी शख्सके कामोंकी नैतिक या दूसरे प्रकारकी जिम्मेवारियोंको मैं अपने सिरपर नहीं ले सकता; फिर वह मेरे कितने ही आप्त और इष्ट क्यों न हों। मेरे सिरपर यों ही अनेक जिम्मेवारियाँ हैं। मेरे हृदयके अन्दर जो शाश्वत द्वन्द्वयुद्ध होता रहता है, और जो कभी अस्थायी सुलहका कायल नहीं हुआ है उसके दौरान जिन कष्टों और सन्तापोंको मैं झेला करता हूँ उन्हें तो अकेलामें ही जानता हूँ। पाठक विश्वास करें कि इस उक्त प्रयासमें मेरी तमाम शक्ति खर्च हो जाती है। यदि मैं इस युद्धमें जूझनेका पर्याप्त बल पाता हूँ तो इसका