पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 27.pdf/३१७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२८५
पावककी ज्वाला

सबके लिए कोई एक नियम नहीं होता। सामान्य नियम तो यह होना चाहिए कि यदि दो-चार मनुष्य अस्पृश्यताको पाप मानते हों, किन्तु दूसरे सैकड़ों लोग उसे धर्म मानते हों तो वहाँ उन दो-चार लोगोंको धीरज रखना चाहिए और प्रतिबन्धका पालन करना चाहिए। उन्हें लोकमत प्रशिक्षित करना चाहिए। उन्हें पुजारीसे विनयपूर्वक मिलना चाहिए, जातिके पंचोंको समझाना चाहिए और जबतक उनमें से अधिकतर लोग समझ न जाएँ तबतक स्वयं उस प्रतिबन्धको मानना चाहिए; यही अभीष्ट है। यदि लोकमत प्रतिबन्धके विरुद्ध हो तो प्रतिबन्ध लगानेवाले लोगोंको विनयपूर्वक सूचना देकर प्रतिबन्ध तोड़ा जा सकता है।

मैं पुजारियोंको विनयपूर्वक समझाना चाहता हूँ कि यदि वे धर्मके रक्षक बनना और बने रहना चाहते हों तो उनको सावधान हो जाना चाहिए। यदि वे ईश्वरीय नियमोंके विरुद्ध अन्धविश्वास और अधर्मकी दीवारें खड़ी करनेका आग्रह करेंगे तो वे टिक नहीं सकेंगे। मैं मानता हूँ कि वल्लभ सम्प्रदायका, कितना ही तुच्छ सही, अनुयायी होनेके नाते मुझे इतना कहनेका तो अधिकार है ही। उनकी वंश-परम्परासे चली आती हुई गद्दी अब खतरेमें है। मैं चाहता हूँ कि वे अस्पृश्यताको अपनाकर स्वयं अस्पृश्य न बनें। समाजमें आज जिस अस्पृश्यताका पालन किया जा रहा है वह न तो 'भागवत' में मिलती है और न 'गीता' में। वह 'वेदों' और 'उपनिषदों'में भी नहीं है। और तो और, उसका पालन तो व्यवहारमें भी नहीं किया जाता। वैष्णव अपने कामसे जब जरूरत होती है तब अस्पृश्य माने जानेवाले लोगोंका जान-बूझकर स्पर्श करते हैं। कानूनमें भी अस्पृश्यताको कोई स्थान नहीं है। जब वैष्णव अदालतोंमें जाते हैं या कारखानोंमें जाते हैं तब वे अस्पृश्योंको छू लेते हैं; उसके बाद बिना स्नान किए भोजन कर लेते हैं और मन्दिरमें चले जाते हैं। इस प्रकारकी जो अस्पृश्यता व्यवहारमें शून्यवत् ही है, उसे केवल अस्पृश्य माने जानेवाले भाइयों और बहनोंको सतानेकी खातिर, उनका तिरस्कार करनेके लिए माननेमें विवेक, दीर्घदृष्टि, ज्ञान और मर्यादा कुछ भी नहीं है। मैं अपने-आपको वैष्णव कहता हूँ, क्योंकि मैं यह मानता हूँ कि वैष्णव धर्ममें इन सब गुणोंके लिए स्थान है। वैष्णव धर्मकी उत्पत्ति ही दया, ज्ञान और पतितोंको भी पुनीत करनेकी भावनासे हुई है, ऐसी मेरी मान्यता है। मैं बंगालमें यही देख रहा हूँ। जो कार्य वल्लभाचार्यने पश्चिममें किया है, वही चैतन्यने पूर्वमें किया है। बंगालमें चैतन्यने अस्पृश्य माने जानेवाले लाखों लोगोंका उद्धार किया। उन्होंने अस्पृश्यताकी जड़ ही हिला दी थी, इसलिए आज बंगालमें अस्पृश्यता बहुत कम है। स्पर्श करनेसे अपवित्र हो जाते हैं, ऐसा तो कोई वहाँ मानता ही नहीं। बंगालमें अस्पृश्यता केवल इतनी ही है कि "अस्पृश्य" के हाथसे जल ग्रहण न किया जाए और नाई और धोबी उसकी सेवा न करें। अब यह मिथ्या धारणा भी वहाँ बहुत क्षीण हो गई है। आज वहाँ कितने ही अस्पृश्य वकील और डाक्टर हैं। उनमें ज्ञानवृद्धि होती जा रही है। बंगालमें ढेढ़वाड़ा-जैसी जगह तो शायद ही कहीं हो।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, २१-६-१९२५