१७१. पत्र : वसुमती पण्डितको
आषाढ सुदी १ [२२ जून, १९२५][१]
मुझे तुम्हारे दोनों पत्र लगभग साथ-साथ मिले। अभी तो मुझे एक मास कलकत्तामें ही रहना होगा। तब फिर भ्रमण आरम्भ करूँगा। मैं चाहता हूँ कि तुम अपना मन पक्का कर लो और रहनेकी जगह भी स्थिर कर लो। तुममें कार्य करनेकी योग्यता है या नहीं, यह देखना तो मेरा काम है न? किन्तु यह तो पीछे सोचेंगे। मैं यद्यपि इस समय एक जगह टिका हुआ हूँ; किन्तु फिर भी व्यस्त हूँ।
बापूके आशीर्वाद
गुजराती पत्र (सी॰ डब्ल्यू॰ ४६४) की फोटो-नकलसे।
सौजन्य : वसुमती पण्डित
१७२. पत्र : नारणदास गांधीको
आषाढ सुदी १ [२२ जून, १९२५][२]
सब शाखाओंके कार्य-विवरण सम्बन्धी पत्र मिल गया है। जान पड़ता है देवचन्द भाईने दूसरोंपर अधिक भरोसा किया है। जहाँ हिसाब बहुत ठीक-ठीक न रखा जायेगा, वहाँ हमें पछताना होगा। मैंने...को[३] लिखा है कि वे जिन बहियोंको खानगी मानते हैं वह भी उन्हें दिखा देनी चाहिए। तुमने सभी शाखाओंके विवरण भेजे हैं। उनमें से ऐसा संक्षिप्त विवरण तैयार करके प्रकाशित करनेके लिए भेजना जिसे पढ़नेमें लोगोंको रस आये और जानकारी भी मिले।
इस प्रवृत्तिमें लगे हुए कितने लोग अपना खर्च स्वयं उठाते हैं, कितने कम वेतन लेकर काम करते हैं, कितने बाजार दरसे पारिश्रमिक लेकर काम करते हैं और सबको कुल मिलाकर कितना रुपया दिया जाता है, यह भी उस संक्षिप्त विवरणमें लिखना। यह बात भी उसमें अवश्य हो कि कुल कितने चरखे चलते हैं। जमनादासको क्या हो गया था? खुशालभाई और देवभाभीको मेरा दण्डवत्।
बापूके आशीर्वाद