पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 27.pdf/३२७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

 

१७८. टिप्पणियाँ

अन्याय इष्ट न था

आप कहते हैं कि शिक्षित भारतीय आपके सन्देशकी ओर आकर्षित नहीं हुए हैं। क्या आप इससे उनके प्रति अन्याय नहीं करते? आप अपने दायें हाथ राजगोपालाचारीजीको ही लें। फिर निःस्वार्थ शिक्षित कार्यकर्त्ताओंका एक समुदाय समस्त देशमें फैला हुआ है। आप इनकी चर्चा 'यंग इंडिया' में बहुत कम ही करते हैं। यदि ये न होते तो आज आपकी हालत क्या होती? आप गाँवोंके कामकी बात करते हैं। यह सब तो बहुत अच्छा है; लेकिन आप उसे भी तो इन्हींकी सहायतासे कर रहे हैं।

इससे एक मिथ्या प्रश्न उपस्थित होता है। अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता। जो मुट्ठी-भर शिक्षित लोग चुपचाप सेवा कर रहे हैं और चरखेका पैगाम पहुँचा रहे हैं उनसे वास्तवमें उनका और देशका गौरव बढ़ रहा है। उनके बिना मैं बिलकुल मजबूर हो जाऊँगा। परन्तु मेरी ही तरह वे भी भारतके शिक्षित जनोंके प्रतिनिधि नहीं हैं। एक वर्गके रूपमें शिक्षित भारतवासियोंका चरखेसे कोई सम्बन्ध नहीं है; इसलिए नहीं कि वे उसे चाहते नहीं हैं; बल्कि इसलिए कि वे अभी उसके कायल नहीं हुए हैं। जब मैंने यह बात लिखी थी[१] तब मेरे ध्यानमें सर्वश्री शास्त्री, जिन्ना, चिन्तामणि, सप्रू और देशके शिक्षित समुदायके समस्त प्रसिद्ध लोग थे। सामान्य लोग व्यक्तिगत रूपसे मुझे भले ही चाहते हों; परन्तु वे मेरे विचारों और मेरी कार्यप्रणालियोंसे भयभीत हैं। कुछ लोग तो कभी-कभी मुझे सचाईके साथ यह भी समझाते हैं कि मैं अपना ढंग सुधारूँ जिससे वे मेरे साथ होकर काम कर सकें। यह अंश मैंने बतौर शिकायतके भी नहीं लिखा था। मैंने तो सिर्फ वस्तुस्थितिका वर्णन किया है——इस उद्देश्यसे कि मैं अपनी मर्यादायें बता दूँ और यह भी दिखा दूँ कि राष्ट्रीय उत्थानमें उनकी भी उतनी ही आवश्यकता है जितनी कि चरखेके सभी फलितार्थीको समझनेवाले और उनका प्रतिनिधित्व करनेवाले बड़ेसे-बड़े नेताओंकी है। मैं यह भी मानता हूँ कि कांग्रेसका उन्हींके द्वारा नेतृत्व होना ठीक है; और मुझे महज मतोंके बलपर इस प्रश्नको तय करानेकी उतावली न करनी चाहिए; बल्कि उलटा मुझे तबतक धीरज रखना चाहिए, जबतक मैं उन्हें यह विश्वास नहीं करा देता कि भारतके राजनैतिक उद्धारके लिए भी चरखा और खादी अत्यन्त आवश्यक हैं।

माता-पितासे पहले संस्था

अपने बंगालके दौरेमें मैंने यह भी विस्मयकारी बात सुनी कि एक सार्वजनिक संस्थाके सदस्य अपने माता-पिताके भरण-पोषणकी अपेक्षा अपनी संस्थाका निर्वाह करना

  1. सम्भवतः यहाँ उल्लेख "वया हम तैयार हैं?", १८-६-१९२५ शीर्षक लेखका है।