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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

अधिक ठीक मानते हैं। यह भी कहा गया कि इस सम्बन्धमें उन्हें मेरा समर्थन प्राप्त है। यदि इस अखबारमें मैंने कोई ऐसी बात लिखी हो, जिससे इस प्रकारका खयाल पैदा हुआ हो, तो मैं पाठकोंसे क्षमा माँगता हूँ। मुझे जान-बूझकर कोई ऐसा अपराध करनेकी याद नहीं है। मैं जो-कुछ हूँ उस सबका श्रेय मेरे माता-पिताको है। उनके प्रति मेरी भावना वैसी ही थी, जैसी श्रवणकी अपने माता-पिताके प्रति बताई जाती है। इसलिए यह बात सुनकर मेरे मनमें जो क्रोध उमड़ा, उसे मैं बहुत ही कठिनाईसे रोक सका। जिस युवकने यह बात कही थी, वह इस विषयमें गम्भीर नहीं था। परन्तु आजकल कुछ नौजवानोंका यह रवैया ही हो गया है कि वे अपनेको सर्वश्रेष्ठ समझते हैं और पूर्णताकी प्रतिमूर्ति होनेका ढोंग करते हैं। मेरी रायमें बालिग पुत्रोंका प्रथम कर्त्तव्य बूढ़े और दुर्बल माता-पिताओंका भरण-पोषण करना है। यदि वे अपने माता-पिताओंका भरण-पोषण करनेकी स्थितिमें न हों तो विवाह न करें। तबतक यह पहली शर्त पूरी न हो, वे सार्वजनिक काम हाथमें न लें। उन्हें स्वयं भूखों मर कर भी अपने माता-पिताके लिए अन्न-वस्त्र जटाना चाहिए। परन्तु नौजवानोंसे यह आशा नहीं रखी जाती कि वे माता-पिताओंकी विचारहीन या अज्ञानपूर्ण माँगें पूरी करें। ऐसे माता-पिता होते हैं जो गुजारेके लिए नहीं बल्कि झूठे दिखावे या लड़कियोंके विवाहके अनावश्यक खर्चके लिए रुपया माँगते हैं। मेरी रायमें सार्वजनिक कार्यकर्त्ताओंका कर्त्तव्य है कि वे विनयपूर्वक ऐसी माँगोंको माननेसे इनकार कर दें। असलमें मुझे जहाँतक स्मरण है, कोई ऐसा योग्य सार्वजनिक कार्यकर्त्ता नहीं मिला है जो भूखों मरता हो। मुझे कुछ लोग तंगदस्त जरूर मिले हैं। मुझे कुछ लोग ऐसे भी मिले हैं, जिन्हें जितना मिल रहा है उससे अधिक मिलना चाहिए। किन्तु जब उनका काम बढ़ जायेगा और उनकी योग्यता प्रकट हो जायेगी, तब उन्हें तंगी नहीं उठानी पड़ेगी। मनुष्य कठिनाइयों और कष्टोंसे ही बनता है। ये तो स्वस्थ विकासके चिह्न हैं। यदि सभी नवयुवक सम्पन्नताका उपभोग करें और आवश्यक वस्तुओंका अभाव किस चिड़ियाका नाम है यह भी न जानें तो वे कष्टोंके आनेपर उनके सामने कभी नहीं टिक सकेंगे। आह्लाद त्यागसे ही मिलता है।

इसलिए सरेआम अपने त्यागका ढिंढोरा पीटना ठीक नहीं है। कई कार्यकर्त्ताओंने मुझे बताया कि वे किसी भी प्रकारका त्याग करनेके लिए तैयार हैं। पूछनेपर मालूम हुआ कि त्यागसे उनका अर्थ माँगकर या दान प्राप्त करके निर्वाह करना है। मैंने उन्हें बताया कि दानसे जीवन-निर्वाह करनेमें त्यागकी कोई बात नहीं है। कई सार्वजनिक कार्यकर्त्ता ऐसा करते हैं, पर इस कारण वे त्यागका दम नहीं भर सकते। कई युवकोंने अच्छी-खासी आमदनी देनेवाली अपनी आजीविकाएँ छोड़ दी हैं। बेशक यह उनके लिए श्रेयकी बात है, पर यहाँ मैं नम्रतापूर्वक इतना जरूर कह देना चाहता हूँ कि त्यागकी प्रशंसामें अति कर देनेकी आशंका भी बराबर रहती है, जो प्रसन्नतापूर्वक न किया जाये, वह त्यग त्याग नहीं है। त्याग करके मुँह उतार लेनेमें कोई बड़प्पन नहीं है। त्याग 'पवित्र बनने की प्रक्रिया' है। जो व्यक्ति किये गये त्यागके लिए दूसरोंकी सहानुभूति चाहता है, वह बहुत ही घटिया वृत्तिका