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१८४. पत्र : शुएब कुरैशीको

२६ जून, १९२५

तुम हिन्दू-मुस्लिम झगड़ोंके बारेमें जो भी कुछ कहते हो वह बिलकुल सही है। मैं वही रास्ता अपना रहा हूँ जो उस्मानके जमानेमें पैगम्बरके साथियोंने अपनाया था। इस्लाम विरोधी गुटोंमें बँटकर टूट-बिखर गया तो वे गुफाओंमें चले गये थे। तो हम यों कह सकते हैं कि जबतक हिन्दू-मुसलमान कुत्ते-बिल्लीकी तरह झगड़ते हैं तबतकके लिए हम अपने ही अन्दर सिमटकर आत्मचिंतनमें लग जायें।

[अंग्रजीसे]

महादेव देसाईकी हस्तलिखित डायरीसे।

सौजन्य : नारायण देसाई

 

१८५. भाषण : कलकत्ताकी शोकसभामें[१]

२६ जून, १९२५

इसके बाद गांधीजीने कहा कि प्रस्ताव तैयार करके गुजराती समाजने अपना कर्त्तव्य-मात्र निभाया है, अधिक कुछ नहीं। १८ जूनका दिन देशबन्धुकी मृत्युपर शोक व्यक्त करनेका दिन था और मैं समझता हूँ कि इस सभामें उपस्थित लोगोंमें से अधिकांश देशबन्धुकी शवयात्रामें शरीक हुए थे। मैं पहले भी अपील कर चुका हूँ कि देशबन्धुका स्थायी स्मारक बनानेके लिए कमसे-कम दस लाख रुपयोंका कोष जमा किया जाये और स्मारक उसी तरहका हो जैसा कि उस कागजमें उन्होंने लिखा है, जिसे हम देशबन्धु की वसीयत कह सकते हैं। मैं इस समय उसी काममें संलग्न था और जब सेठ आनन्दजी हरिदास तथा अन्य मित्र मेरे पास यह कहनेके लिए पहुँचे कि इस उत्सवको अध्यक्षता आप कीजिए तब मैंने उनसे साफ कहा कि गुजराती समाजकी ओरसे मैं अपनी अपीलके उत्तरमें समुचित योगदानकी आशा रखता हूँ। मैंने उनसे यह भी पूछा कि क्या अपने हिस्सेकी रकम कोषमें देनेके लिए आपने कोई राशि इकट्ठी की है, लेकिन मुझे यह देखकर निराशा हुई कि ऐसा कोई प्रबन्ध पहलेसे नहीं किया गया था। मैं कामकाजी व्यक्ति हूँ और मेरे पास कोषके लिए संग्रह करनेको जितना भी समय है उसमें से एक भी मिनट नष्ट करना मैं पसन्द नहीं

  1. चित्तरंजन दासको मृत्युपर शोक मनानेके लिए शामको अल्फ्रेड थियेटरमें एक सभा की गई। गांधीजीने अध्यक्षता की और शोक प्रस्ताव सर्वसम्मतिले पास हो जानेके पश्चात् उन्होंने यह भाषण दिया।