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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

मुझे दो-तीन सशक्त मनुष्योंने बारी-बारीसे अपने कन्धोंपर उठाया। मैं कन्धोंपर बैठे-बैठे ही लोगोंको आगे बढ़नेसे रोकता और अपनी-अपनी जगह बैठनेके लिए समझाता। लोग जबतक मुझे देख सकते थे तबतक तो बैठे रहते, किन्तु अन्यत्र अशान्तिकी आशंका होनेपर, मेरे उस ओर ले जाये जानेपर, मेरी पीठ फिरते ही फिर खड़े हो जाते। वे सभी आपेसे बाहर हो रहे थे। हजारों आँखें अर्थीपर लगी हुई थीं। जब अग्निदाह शुरू हुआ तब वे अधीर हो उठे। सब बरबस खड़े हो गये और चिताकी ओर अग्रसर हुए। यदि एक भी क्षणका विलम्ब होता तो सबके चितापर आ गिरनेका अन्देशा था। अब क्या करें? मैंने लोगोंसे कहा——'अब काम पूरा हुआ, अतः आप सब अपने-अपने घर चले जायें', और जो भाई मुझे उठाये हुए थे उनसे कहा 'अब आप मुझे इस भीड़में से निकाल ले चलें।' मैं लोगोंसे पुकार-पुकारकर और इशारेसे कहता गया कि वे मेरे पीछे-पीछे चले आयें। इसका असर बहुत अच्छा हुआ, हजारोंकी वह भीड़ वापस चल पड़ी और इस तरह दुर्घटनासे बच गई। चिता चन्दनकी लकड़ीसे रची गई थी।

ऐसा मालूम होता था मानो लोग वन-भोजके लिए आये हों। गम्भीरता तो सबके चेहरेपर थी, परन्तु ऐसा नहीं मालूम होता था कि वे शोकमग्न हैं। कुटुम्बियोंका और मेरा शोक स्वार्थमय लगता था। हमारा तत्त्वज्ञान खत्म हो गया था, लोगोंका कायम रहा, क्योंकि वे तटस्थ थे। उनमें देशबन्धुके प्रति सम्मानका भाव तो पूरा था; किन्तु उनकी पूजा निःस्वार्थ थी। वे तो इस भारतपुत्रको, अपने इस बन्धुको प्रमाणपत्र भेंट करनेके लिए आये थे। वे अपनी आँखोंसे और चेष्टासे ऐसा कहते हुए दिखाई देते थे——'दास, तुमने बहुत अच्छा काम किया; तुम्हारे जैसे हजारों हों।'

देशबन्धु-जैसे भव्य थे, वैसे ही भले भी थे। मुझे दार्जिलिंगमें इसका पूरा अनुभव हुआ। वहाँ उन्होंने धर्म-सम्बन्धी बातें कीं। जिन बातोंकी छाप उनके ऊपर गहरी पड़ी थी, उनकी चर्चा की। वे धर्मका अनुभवजन्य ज्ञान प्राप्त करनेके लिए उत्सुक थे। 'दूसरे देशोंमें कुछ भी हो, परन्तु इस देशका उद्धार तो अहिंसाके मार्गसे ही सम्भव है। मैं यहाँके नवयुवकोंको दिखा दूँगा कि हम अहिंसाके मार्गपर चलकर स्वराज्य प्राप्त कर सकते हैं।' 'यदि हम नेक बन जायेंगे तो अंग्रेजोंको नेक बना लेंगे।' इस अन्धकार और दम्भमें मुझे सत्यके सिवा दूसरा कोई रास्ता नहीं दिखाई देता। दूसरेकी हमें आवश्यकता भी नहीं है।' 'मैं तमाम दलोंमें मेल कराना चाहता हूँ। बाधा सिर्फ इतनी ही है कि हमारे लोग भीरु हैं। उनमें एकता करानेके प्रयत्नमें होता यह है कि स्वयं हमारे भीरु बन जानेका भय रहता है। आप जरूर सबको मिलानेकी कोशिश करें और——से[१] मिलें,——पत्रके[२] सम्पादकको समझायें कि मेरी और स्वराज्यदलकी निन्दा करनेसे क्या लाभ? मैंने भूल की हो या अनुचित कार्य किया हो तो वे मुझे बतायें। मैं उनका समाधान न कर सकूँ तो वे मेरी जी-भर कर निन्दा कर सकते हैं।' 'आपके चरखेका रहस्य मैं दिन-प्रतिदिन अधिकाधिक समझता जाता हूँ। मेरा कन्धा दर्द न करे और कताईके सम्बन्धमें बिलकुल जड़ न होऊँ तो मैं सूत

  1. मूलमें यहाँ दो नाम छोड़ दिये गये हैं।