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कुछ संस्मरण

कातना तुरन्त सीख लूँ। एक बार सीखनेपर फिर नियमपूर्वक कातनेमें मेरा जी न ऊवेगा। परन्तु सीखनेमें तो जी ऊब जाता है। देखो न, तार बार-बार टूट जाता है।' 'परन्तु आप ऐसा किस तरह कह सकते हैं कि स्वराज्यके लिए क्या नहीं किया जा सकता?' 'हाँ, हाँ, यह तो ठीक ही है। मैं सीखनेसे इनकार कब करता हूँ? मैं तो अपनी कठिनाई बताता हूँ। पूछें न बासन्ती देवीसे कि मैं ऐसे कामोंमें कैसा जड़ हूँ?' बासन्ती देवीने उनकी हाँ-में हाँ मिलाई और कहा, "यह बात सच है। उन्हें अपना सन्दूक खोलना हो तो ताली लगाने मुझे आना पड़ता है।" मैंने कहा, 'यह तो आपकी चालाकी है। इस तरह आपने देशबन्धुको अपंग बना रखा है, जिससे उन्हें सदा आपकी खुशामद करनी पड़े और आपका मुँह ताकना पड़े।' हँसीसे कमरा गूँज उठा। देशबन्धु बीचमें ही बोले, 'आप एक महीने बाद मेरी परीक्षा लें। उस समय मैं मोटा सूत कातता न मिलूँगा।' मैंने कहा——'ठीक है। आपके लिए सतीश बाबू शिक्षक भी भेज देंगे। आप पास हो जायेंगे तो समझ लें कि स्वराज्य नजदीक आ गया।' ऐसे सब विनोदोंका वर्णन करने लगूँ तो अन्त नहीं आ सकता।

कुछ संस्मरण तो ऐसे हैं जिनका वर्णन हो ही नहीं सकता।

फिर भी मैं जिस प्रेमका अनुभव वहाँ कर रहा था उसकी कुछ झलक यहाँ न दूँ तो मैं कृतघ्न माना जाऊँगा। वे मेरी छोटी-छोटी-सी बातकी सँभाल रखते थे। मेवे कलकत्तेसे खुद मँगवाते। दार्जिलिंगमें बकरी या बकरीका दूध मिलना मुश्किल होता है; इसलिए उन्होंने ठेठ तलहटीसे पाँच बकरियाँ मँगवाकर अपने घर बाँध रखी थीं। वे मेरी जरूरतकी एक-एक चीजका इन्तजाम किये बगैर न रहते थे। हमारे कमरोंके बीच तो सिर्फ एक दीवार ही थी। वे सुबह होते ही नित्यकर्मसे निवृत्त हो मेरी राह देखने लगते। वे स्वयं चारपाईपर ही बैठते थे, क्योंकि उनकी चारपाई अभी छूटी नहीं थी। वे मेरी पालथी भरकर बैठनेकी आदतसे वाकिफ थे। इसलिए वे मुझे कुर्सीपर नहीं बैठने देते थे और अपने सामने अपनी चारपाईपर ही बैठाते थे। वे गद्देपर भी खास तौरपर कुछ बिछवाते और तकिया भी लगवाते। मैं उनसे विनोद किये बिना न रह सका। मैंने कहा, 'यह दृश्य तो मुझे चालीस बरस पहलेकी याद दिलाता है। जब मेरी शादी हुई थी तब हम दोनों वर और वधू इस तरह बैठे थे। अब यहाँ पाणिग्रहणकी कसर रहती है।' मेरे इतना कहते ही देशबन्धुकी मुक्त हँसीसे सारा घर गूँज उठा। देशबन्धु जब हँसते तो उनकी आवाज दूरतक गूँज जाती थी।

देशबन्धुका हृदय दिनपर-दिन कोमल होता जाता था। उनके लिए मांस-मछली खाना रिवाजके खिलाफ न था। फिर भी जब असहयोग शुरू हुआ तब उन्होंने मांसाहार, मद्यपान और धूमपान तीनों चीजें छोड़ दी थीं। कुछ दिन बाद वे फिर आरम्भ हो गई थीं। परन्तु उनकी वृत्ति इनको छोड़नेकी ही रहती थी। अभी कुछ दिनसे उनका सम्पर्क राधास्वामी सम्प्रदायके एक साधुसे हुआ था। तबसे उनकी निरामिष भोजनकी उत्सुकता बढ़ गई थी। अतः जब मैं दार्जिलिंग गया तब उन्होंने निरामिष भोजनका प्रयोग पुनः प्रारम्भ कर दिया था और जबतक मैं वहाँ रहा, तबतक घरमें मांस-मछली नहीं आने दिया। उन्होंने मुझसे अनेक बार कहा था——'यदि मुझसे हो