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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

सका तो अब मैं मांस-मछली छुऊँगा भी नहीं। वे मुझे पसन्द भी नहीं और मैं समझता हूँ कि उनसे हमारी आध्यात्मिक उन्नतिमें बाधा आती है। मेरे गुरुने मुझसे खास तौरपर कहा है कि मुझे साधना करनी हो तो मांसाहार छोड़ ही देना चाहिए।'

[गुजरातीसे]
नवजीवन, २८-६-१९२५
 

१८९. काठियावाड़का प्रयोग

इस समय काठियावाड़में जो प्रयोग चल रहा है, उसके सम्बन्धमें सम्मेलनके मन्त्रीने लिखा है :[१]

मैं बंगालमें हुए अनुभवसे देखता हूँ कि यदि काठियावाड़-जैसा प्रयोग बंगालमें करनेके साधन उपलब्ध हो तो वहाँ काठियावाड़की शर्तोंपर पूनियाँ लेनेवाले लोगोंकी भीड़ लग जाए। किन्तु मैं तो भूल गया कि बंगालमें तो पूनियाँ देनेकी जरूरत ही नहीं होगी, क्योंकि वहाँ तो कातनेवाले अपने हाथसे रुई पींज लेते हैं और पूनियाँ बना लेते हैं। वहाँ तो केवल सस्ती रुई मिलनी चाहिए और बुनाईकी दर आधी कर दी जानी चाहिए। वहाँ तो बहुत-से लोग रुई तो रुई कपास लेकर भी सूत कात देनेके लिए तैयार हो जाते हैं, क्योंकि वे स्वयं कपासको ओटना जानते हैं और ओटते भी हैं। काठियावाड़में पूनियाँ तो खप गई हैं; किन्तु इसका परिणाम क्या निकलता है, अभी यह देखना बाकी है।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, २८-६-१९२५
 

१९०. देशबन्धु चिरंजीव हों!

जब लोकमान्यका देहावसान हुआ तब मैं सौभाग्यसे बम्बईमें मौजूद था। जब देशबन्धुके देहका अग्नि-संस्कार हुआ तब भी दैवने मुझपर ऐसी ही कृपा की; अथवा यह कहूँ कि विधाता तबतक रुका रहा जबतक मेरी यात्राका प्रथम चरण पूरा न हो गया, क्योंकि यदि अग्नि-संस्कार एक दिन पहले हो जाता तो मैंने जो दृश्य कलकत्तेमें देखा, मैं उसे न देख पाता।

जिस तरह लोकमान्यके अवसानके समय बम्बई शोकसे पागल हो गई थी, उसी तरह देशबन्धुके समय कलकत्ता शोकसे पागल हो गया था। जैसे वहाँ अगणित स्त्री-पुरुष दर्शन करने, आँसू बहाने और प्रेम प्रदर्शित करने उमड़ पड़े थे वैसे ही वे यहाँ

  1. यहाँ नहीं दिया गया है। उसमें काठियावाड़ राजनैतिक परिषद्की खादी उत्पादनकी योजनाकी प्रगतिका विवरण दिया गया था।