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देशबन्धु चिरंजीव हों!

भी उमड़ पड़े। उस समयकी तरह इस समय भी एक भी जाति या प्रजाति ऐसी न थी जिसके लोग उनके प्रति आदरभाव दिखानेके लिए जमा न हुए हों। जब गाड़ी स्टेशनपर आई तब वहाँ एक अंगुल-भर भी जगह खाली नहीं थी। जैसे लोकमान्यके मृतदेहको कन्धा देनेके लिए लोग एक-दूसरेकी स्पर्धा करते थे वैसे ही वे इस समय भी इसके लिए अधीर थे।

दोनों समय जनताका अपना राज्य हो गया था। लोग पुलिसके नियन्त्रणमें नहीं रहे थे; बल्कि कहना चाहिए पुलिस स्वेच्छासे लोगोंके नियन्त्रणमें आ गई थी। सरकारी अमल जान-बूझकर मुल्तवी कर दिया गया था, और लोगोंका अमल चल रहा था। उस दिन लोगोंने जो चाहा वह किया। जिस बातको देशबन्धु अपनी जीवितावस्थामें करना और देखना चाहते थे, उसे लोगोंने उनके परलोक गमनके समय कर दिखाया था।

यह घटना क्या कोई छोटा-मोटा पदार्थ-पाठ हमें सिखाती है? प्रेमपाश क्या नहीं कर सकता? लोगोंने उस दिन भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी——सबको भुला दिया था, और उस कष्टको सहनेके लिए उनसे किसीको प्रार्थना नहीं करनी पड़ी थी।

किसी छत्रपतिके देहान्तके समय भी इस तरह जन-समुद्र नहीं उमड़ता। जिन्हें समाज संन्यासी मानता है, उनके देहान्तपर भी लोग ध्यान नहीं देते, अखबारोंमें लेख नहीं लिखते और उनके बारेमें तार नहीं भेजते; परन्तु किस धर्मके अनुसार यहाँ छोटे- बड़े, स्त्री-पुरुष, राजा-रंक और हिन्दू-मुसलमान बिना बुलाये पलक मारते ही एकत्र हो गये? वह धर्म है राष्ट्रधर्म। जो मनुष्य इस धर्मका अवलम्बन करता है, आज लोग उसीको धर्मवान माननके लिए तैयार हैं और जो मनुष्य इसी एक धर्मका पालन करता है वे उसके दोष भी भूल जानेके लिए तैयार हैं। इसमें एक रहस्य है। लोग ऐसा मूर्खतावश नहीं करते। निर्विकार तो एक ईश्वर है। मनुष्य-मात्रमें दोष होना सम्भव है। पर मनुष्य भी यदि पूरी तरह स्व-धर्मका पालन करे तो उसके दोष छिप जाते हैं और अन्तमें उनका क्षय हो जाता है।

इस समय राष्ट्रधर्म ही धर्म हो गया है, क्योंकि उसके बिना अन्य धर्मोका पालन ही असम्भव है। आज राजसत्ताने सर्वत्र लोकजीवनके प्रत्येक अंगको आच्छादित कर लिया है। जहाँ राजसत्ता लोकसत्ता है, वहाँ लोग कुल मिलाकर सुखी हैं। जहाँ राजसत्ता प्रजाके प्रतिकूल है, वहाँ लोग दुखी हैं, निःसत्व हैं और धर्मके नामपर अधर्मका आचरण करते हैं, क्योंकि भयके वश रहनेवाला मनुष्य धर्माचरण कर ही नहीं सकता। इस महाभयसे मुक्त होना अर्थात् आत्मदर्शन करनेका पहला पाठ सीखना यही राष्ट्रधर्म है। राष्ट्रप्रेमी हमें क्या शिक्षा दे रहे हैं? आप लोग चक्रवर्तीसे भी न डरें। आप मनुष्य हैं। मनुष्यका धर्म है कि वह ईश्वरके सिवा किसीसे न डरे। उसे न तो पंचम जॉर्ज डरा सकते हैं और न उनके प्रतिनिधि। लोकमान्यने राजदण्डका भय सर्वथा त्याग दिया था। इस कारण क्या सामान्य जन और क्या पण्डित, सभी उन्हें पूजते थे; क्योंकि उनसे उन्हें बल मिलता था। देशबन्धुने भी राजसत्ताका डर बिलकुल छोड़ दिया था। उनके नजदीक वाइसराय और दरबान दोनों एक-जैसे थे। उन्होंने अन्तःचक्षुओंसे देख लिया था कि अन्ततः दोनोंमें कोई अन्तर नहीं है। जिस प्रकार