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देशबन्धु चिरंजीव हों!

देशबन्धुकी पिछले तीन-चार मासकी प्रगति अद्भुत थी। उनकी उग्रताका अनुभव तो बहुतोंने किया होगा; किन्तु उनकी नम्रताका अनुभव मुझे फरीदपुरसे[१] जो होने लगा सो बढ़ता ही गया। उनका फरीदपुरका भाषण बिना विचारे नहीं लिखा गया था। वह विचारोंकी परिपक्वताका सुन्दर पुष्प है। मैंने उसमें भी इस परिपक्वताकी प्रगति होती हुई देखी है और यह प्रगति दार्जिलिंगमें चरम अवस्थाको पहुँच गई थी। मैं इन पाँच दिनोंके संस्मरणोंका वर्णन करते हुए थकता ही नहीं हूँ। उस समय उनके हर कार्यसे, हर बातसे, प्रेम ही प्रेम टपकता था। उनका आशावाद बढ़ता जाता था। वे अपने प्रतिपक्षियोंपर कटाक्ष कर सकते थे, परन्तु उन पाँच दिनोंमें मुझे उसका तनिक भी अनुभव न हुआ। उलटा उन्होंने बहुतोंके सम्बन्धमें जो बातें कहीं मैंने उनमें से एकमें भी तनिक भी कटुता नहीं देखी। सर सुरेन्द्रनाथ उनका विरोध बराबर कर रहे थे। फिर भी श्री दासको उनके प्रति अपने व्यवहारमें मिठास ही बरतनी थी। उन्हें उनके हृदयपर विजय प्राप्त करनी थी। वे मुझसे यही काम लेना चाहते थे। उनकी सलाह थी कि मैं जितनोंको मिला सकूँ उतनोंको मिलानेकी कोशिश करूँ।

अब आगे लड़ाई किस प्रकार लड़ें, स्वराज्य-दलको क्या करना चाहिए और उसमें चरखेका क्या स्थान है, इत्यादि बातें भी विस्तारसे हुईं। हमने बंगालके लिए एक योजना भी तैयार की। शायद वह कभी कार्यान्वित की जाये; किन्तु कार्यकर्ता कहाँ हैं?

मैं दार्जिलिंगसे हलका मन लेकर चला था। मेरा भय दूर हो गया था। मुझे अपना मार्ग——स्वराज्यका मार्ग स्पष्ट दिखाई दे रहा था। किन्तु अब क्षितिजपर बादल घिर आये हैं। लोकमान्यके देहावसान के समय मैं चिन्तित हो गया था। तब एकसे प्रार्थना करनेके बजाय अनेकोंसे प्रार्थना करनेकी स्थिति आ गई थी। मैं लोक- मान्यको अपना दुःख सुनाकर उनसे उसकी निवृत्ति करा सकता था। उसके बजाय अब मुझे अनेकोंके सामने दुःख रोना था; किन्तु फिर भी मैं जानता था कि वे उसे दूर न कर सकेंगे और अब ऐसा समय आ गया है जब उलटे मुझे उनके आँसू पोंछने होंगे।

मैं देशबन्धुके अवसानसे अधिक विपत्तिमें पड़ गया हूँ। देशबन्धुका अर्थ था सारा बंगाल। मेरे लिए उनकी सही मिलनेका अर्थ था मेरे हाथ दर्शनी हुण्डीका आना। यहाँतक तो दोनोंके वियोगका दुःख बराबर है। परन्तु लोकमान्यके अवसानके समय रास्ता सीधा था। लोगोंके मनमें नई आशाएँ थीं। उन्हें अपनी शक्ति आजमानी थी और नये प्रयोग करने थे। तब हिन्दू और मुसलमान भी एक हो गये मालूम होते थे।

परन्तु अब? अब तो सिरपर आकाश है और पाँव तले धरती। नये प्रयोग मेरे पास हैं नहीं। हिन्दू और मुसलमान तो लड़नेकी तैयारियाँ कर रहे हैं। ऐसा लगता है मानो लोग धर्मो के लिए राष्ट्रधर्मको छोड़ बैठे हों। ब्राह्मण और अब्राह्मण भी लड़ रहे हैं। सरकारने मान लिया है कि वह अब हिन्दुस्तानमें मनमानी कर सकती है। लगता है मानो सविनय-अवज्ञा दूर चली गई है। ऐसे समयमें जब एक

  1. यहाँ १९२५ में २ से ४ मईतक चित्तरंजन दासकी अध्यक्षतामें बंगाल प्रान्तीय कृषि परिषद् हुई थी।