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गंगा-स्वरूप बासन्तीदेवी

सकता है कि वे जब दार्जिलिंगसे श्री दासका शव लेकर कलकत्ता आई तभीसे मैं उनके पास रहा हूँ। उनके विधवा होनेके बाद उनसे मेरी पहली मुलाकात उनके दामादके घर हुई थी। वे बहुत-सी स्त्रियोंसे घिरी बैठी थीं। वे सववा थीं तब मेरे कमरेमें पहुँचनेपर वे स्वयं सामने आतीं और मुझसे बात करती थीं। किन्तु अब विधवा होनेपर वे मुझसे क्या बात करती? वे काठकी पुतलीकी तरह बहुत-सी बहनोंमें स्तब्ध बैठी थीं। मेरी आँखें एक मिनटतक तो उन्हें ढूँढ़ती ही रहीं। माँगमें सिंदूर, ललाटपर कुंकुमका टीका, मुँहमें पान, हाथमें चूड़ियाँ और साड़ीपर लेस और हँस-मुख चेहरा——जब मुझे इनमें से एक भी चिह्न न दिखा तब मैं बासन्ती देवीको कैसे पहचानता? अतः जहाँ उनके होनेका अनुमान लगाया था, मैं वहाँ जाकर बैठ गया। और उनका मुँह ताकने लगा। उन्हें देखना असह्य हो गया। पहचानमें तो वे आ गयीं; किन्तु मुझे अपना रोना रोकना मुश्किल हो गया। ऐसी अवस्थामें छातीको पत्थर बनाकर मैं आश्वासन कैसे देता?

उनके मुखपर सदाकी भाँति सहज हास्य आज कहाँ था? मैंने उन्हें सान्त्वना देने, प्रसन्न करने और उनसे कुछ शब्द पानेके बहुत प्रयत्न किये। तब कहीं बहुत समय बाद मैं कुछ सफल हुआ।

बासन्ती देवी कुछ मुस्कराईं।

मुझे कुछ हिम्मत हुई और मैंने कहा,

'आपको रोना नहीं चाहिए। आप रोयेंगी तो सब रोयेंगे। मोना (बड़ी लड़की) बड़ी मुश्किलसे चुप की जा सकी है। बेबी (छोटी लड़की) की हालत तो आप जानती ही हैं। सुजाता (पुत्रवधू) फूट-फूटकर रो रही थी; वह शायद अब चुप हो गई है। आप दया करें। हमें आपसे तो अभी बहुत काम लेना है।'

उस वीरांगनाने दृढ़तापूर्वक उत्तर दिया : 'मैं नहीं रोऊँगी। क्या करूँ, मुझे रोना आता ही नहीं।' मैं इसका मर्म समझ गया और उससे मुझे संतोष हो गया। रोनेसे शोकका भार हलका होता है। इस विधवा बहनको भार तो हलका नहीं करना था, बल्कि बहन करना था; फिर वे रोती क्यों? अब मैं कैसे कह सकता था——"लो चलो, हम भाई और बहन जी-भर कर रो लें और अपना शोक कम कर लें?"

हिन्दू विधवा दुःखकी प्रतिमा है। उसने संसारके समस्त दुःखका भार अपने ऊपर ले लिया है। उसने दुःखको सुख मान लिया है और उसे अपना धर्म बना लिया है।

बासन्ती देवी सब तरह के भोजन करती थीं। १९२० तक तो उनके यहाँ छप्पन भोग तैयार होते थे और सैकड़ों लोग भोजन करते थे। वे पानके बिना एक मिनट नहीं रह सकती थीं और अपनी पानकी डिबिया सदा पास रखती थीं।

किन्तु अब उनकी दशा यह थी, श्रृंगार-मात्रका त्याग, पानका त्याग, मिष्टान्नोंका त्याग और मांस-मछलीका भी त्याग। शेष था केवल पतिका ध्यान और परमात्माका ध्यान।

मैं कितनी ही बहनोंसे प्रार्थना करता हूँ कि वे अपना श्रृंगार कम करें। बहुतसी बहनोंसे कहता हूँ कि वे व्यसनोंको छोड़ दें। किन्तु कोई विरली ही छोड़ती है।