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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

परन्तु विधवा होनेपर? हिन्दू स्त्री विधवा होते ही अपने व्यसनों और श्रृंगारको ऐसे ही छोड़ देती है, जैसे साँप केंचुलीको छोड़ देता है। इसके लिए उसे न तो किसीके कहने-सुननेकी आवश्यकता है और न किसीकी सहायताकी। रिवाज! तुम क्या नहीं करा सकते?

इस दुःखको सहन करना धर्म है या अधर्म? हमने यह बात अन्य धर्मोमें तो देखी नहीं। इस बारेमें हिन्दू-धर्मशास्त्रियोंने कहीं-कुछ भूल तो नहीं की? मुझे तो बासन्ती देवीको देखकर इसमें भूल दिखाई नहीं देती, बल्कि धर्मकी शुद्ध भावना दिखाई देती है। वैधव्य हिन्दू-धर्मका श्रृंगार है। धर्मका भूषण वैराग्य है, भोग-विलास नहीं, फिर दुनिया और कुछ कहे तो कहती रहे।

परन्तु हिन्दू-शास्त्र किस वैधव्यका गुण-कीर्तन और स्वागत करते हैं? उस पन्द्रह वर्षकी मुग्धाके वैधव्यका नहीं, जो विवाहका अर्थ भी नहीं जानती। वैधव्य बाल-विधवाओंके लिए धर्म नहीं है, बल्कि अधर्म है। कामदेव बासन्ती देवीको स्वयं आकर ललचायें तो वह भस्म हो जाये। बासन्ती देवीके शिवकी तरह तीसरी आँख है। परन्तु पन्द्रह वर्षकी बालिका वैधव्यकी महिमाको क्या समझ सकती है? उसके लिए तो वह अत्याचार ही है। मुझे बाल-विधवाओंकी वृद्धिमें हिन्दू-धर्मकी अवनति दिखाई देती है। मैं वासन्ती देवी-जैसी नारीके वैधव्यमें शुद्ध धर्मका पोषण देखता हूँ। वैधव्य सब तरह, सब जगह और सब समय अनिवार्य सिद्धान्त नहीं है। वह उसी स्त्रीके लिए धर्म है जो उसका पालन कर सके।

रिवाजोंके कुऍमें तैरना तो अच्छा है, किन्तु उसमें डूब मरना आत्महत्या है।

जो नियम स्त्रियोंके लिए हो वही पुरुषोंके लिए भी होना चाहिए। रामने यह व्यवहारमें कर दिखाया। वे सती सीताका त्याग न सह सके और वे अपने किये त्यागसे स्वयं ही जले। जबसे सीता गईं तबसे उनका तेज घट गया। उन्होंने सीताकी स्थूल देहका तो त्याग किया, किन्तु उसे अपने हृदयकी स्वामिनी बनाकर रखा। उस दिनसे उन्हें न तो श्रृंगार भाया और न दूसरा वैभव-विलास ही; और वे कर्त्तव्य समझकर तटस्थ वृत्तिसे राज्यकार्य करते हुए शान्त रहे।

जबतक पुरुषवर्ग बासन्ती देवीकी तरह कष्ट नहीं सहता और विविध भोग-विलासोंको नहीं छोड़ता तबतक हिन्दू-धर्म अधूरा है। "एकको मधु और दूसरेको माहुर", ईश्वरके दरबारमें ऐसा उलटा न्याय नहीं हो सकता और नहीं होता। परन्तु आज तो हिन्दुओंमें पुरुषोंने इस ईश्वरीय कानूनको उलट दिया है। उन्होंने स्त्रीके लिए वैधव्यका विधान करके अपने लिए श्मशान भूमिमें ही दूसरे विवाहकी योजनाका अधिकार रखा है।

बासन्ती देवीने अबतक किसीके सामने आँसूकी एक बूँदतक नहीं गिराई है। फिर भी उनके चेहरेपर खुशीकी चमकका कहीं पता नहीं है। उनकी मुखाकृति देखकर लगता है मानो वे लम्बी बीमारीसे उठी हों। मैंने यह हालत देखकर उनसे निवेदन किया कि वे मेरे साथ कुछ समय के लिए बाहर घूमने चलें। वे मेरे साथ मोटरमें तो बैठ गईं, परन्तु बोलती क्या? मैंने बहुत-सी बातें चलाईं। वे उन्हें सुनती रहीं, परन्तु उन्होंने उनमें भाग नहीं लिया। वे घूमने तो गईं, परन्तु पछताईं। उन्हें सारी रात