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दोष किसका?

नींद नहीं आई। 'जो भोग मेरे पतिको अतिप्रिय था वह आज मुझ अभागिनीने भोगा। क्या यह कोई शोक मनाना है?' उनकी सारी रात ऐसे ही विचारोंमें गई। भोंबल (उनका लड़का) मुझे यह बात बता गया। आज मेरा मौन-दिवस है। मैंने कागज पर लिखा है—— 'हमें माताजीके दिमागमें से यह पागलपन निकालना ही होगा। अपने प्रियतमको प्रिय लगनेवाली बहुत-सी बातें हमें उसके वियोगके बाद करनी ही पड़ती हैं। माताजी विलासके लिए मोटरमें नहीं बैठी थीं, केवल आरोग्यके लिए बैठी थीं। उन्हें स्वच्छ हवाकी बहुत जरूरत थी। हमें उनका बल देना है और इस तरह उनके शरीरकी रक्षा करनी है। पिताजीके कामको चमकाने और बढ़ानेके लिए हमें उनके शरीरकी आवश्यकता है। तुम यह बात माताजीसे कह देना।'

भोंबलने कहा, 'माताजीने तो मुझसे कहा था कि आपसे यह बात ही न कही जाये। परन्तु मुझसे रहा नहीं गया, मैं इसलिए यहाँ आया हूँ। अभी तो यही उचित मालूम होता है कि आप उन्हें मोटरमें बैठनेके लिए न कहें।'

बेचारा भोंबल! जो किसीकी मानता ही न था आज बकरी-जैसा बन गया है! प्रभु, उसका कल्याण करें।

पर इस साध्वी विधवाका क्या? उन्हें वैधव्य प्यारा लगता है, फिर भी मुझे असह्य मालूम होता है। सुधन्वा खौलते तेलके कड़ाहेमें पड़ा नाचता था और मुझ-जैसे दूरसे देखनेवाले उसके दुःखकी कल्पना करके काँपते रहे। सतियो! तुम अपने इस दुःख-सहनमें दृढ़ रहना! वह दुख नहीं, सुख है। तुम्हारा पुण्य स्मरणकर बहुत-से पार उतर चुके हैं और बहुत-से पार उतरेंगे।

बासन्ती देवीकी जय!

[गुजरातीसे]
नवजीवन, २८-६-१९२५
 

१९२. दोष किसका?

एक स्वयंसेवक लिखता है:[१]

मुझे इन शब्दोंकी सचाईका अनुभव यहाँ बंगालमें सब जगह होता है। हमने गाँवोंमें जानेका विचार अभी-अभी किया है। पहले तो लोग गाँवोंके लोगोंसे चीजें लेनेकी नीयतसे वहाँ जाते थे। उनको कुछ देनेके विचारसे उनके पास जाना तो अभी शुरू हुआ है। इतने कम समयमें हम उनका विश्वास कैसे प्राप्त कर सकते हैं? कई बार तो बेटेको बापका विश्वास प्राप्त करनेमें वर्षों लग जाते हैं। हमें अपनी खोई हुई साख फिर जमानी है। इसलिए अधीर होनेसे कुछ हासिल न होगा। कुछ लोग सेवाके नामसे अपना उदर-निर्वाह करते हैं। गाँवोंके लोगोंके पास अनुभवके सिवा

२७–२१
  1. यहाँ उद्धृत नहीं किया गया है। इसमें लेखकने अपने अनुभवके आधारपर कहा है कि यदि ग्रामीण-जन कार्यकर्त्ताओंका विश्वास नहीं करते तो इसमें दोष कार्यकर्त्ताओंका ही है।