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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

को चाहिए कि वे स्वराज्य-प्राप्तिकी खातिर देशबन्धुके अधूरे कामको पूरा करनेका प्रयत्न करें।[१]

[अंग्रेजीसे]
अमृतबाजार पत्रिका, १-७-१९२५
 

१९९. अपील : देशबन्धु-स्मारक कोषके लिए[२]

१ जुलाई, १९२५

किसी एक ही विषयपर मौलिक लेख लिखते चले जानेकी मेरी क्षमता बहुत ही सीमित है। किन्तु सम्पादक महोदयने देशबन्धुके बारेमें मुझसे कुछ लिखनेको कहा है। मैं उनकी बात मानकर कुछ लिखनेका यह सुअवसर हाथसे न जाने दूँगा। देशबन्धुके व्यक्तित्व और कृतित्वके जो उत्तम मूल्यांकन पहले ही प्रकाशित हो चुके हैं, उनमें अपनी ओरसे कुछ नया जोड़नेकी अपेक्षा मेरे मनमें उन्हींका सर्वोत्तम प्रयोग करनेकी बात अधिक उठ रही है। देशबन्धु जो महान् विरासत हमारे लिए छोड़ गये हैं, हमें चाहिए कि हम अपने कामों द्वारा अपनेको उसके योग्य सिद्ध करें। स्मारक कोषके लिए सैकड़ों स्त्री-पुरुषोंने जो चन्दा दिया है उसके लिए मैं दाताओंके प्रति आभार प्रकट करता हूँ। लेकिन यदि हमें थोड़े ही समयके अन्दर दस लाख जमा कर लेना है, जैसा कि हमें करना ही चाहिए तो हजारों नहीं लाखों लोगोंको दान देना चाहिए। मैं आशा करता हूँ कि जो लोग इन पंक्तियोंको पढ़ें वे फिरसे किसी अपीलकी प्रतीक्षा न करके शीघ्र अपना चन्दा भेजनेकी कृपा करेंगे। उन्हें चाहिए कि यथासम्भव अधिकसे-अधिक धन भेंजे, न कि थोड़ा-सा भेजकर यह सोचें कि इतना ही हो सका। वे अपने मित्रोंसे चन्दा माँगें, इसके लिए उन्हें किसी प्रमाणपत्रकी आवश्यकता न होगी। वे स्वयं अपने-आप स्वयंसेवक बन सकते हैं। इसमें समयकी बचत है और अधिकसे-अधिक अच्छे परिणामों और कमसे-कम धोखाघड़ीकी सम्भावना है।

मैं जानता हूँ कि लोग स्वराज्य हासिल करनेको अधीर हो रहे हैं। कुछका विचार है कि देशबन्धुके स्मारकके रूपमें केवल एक अस्पताल बनवा देना उस व्यक्तिकी स्मृतिका यथोचित सम्मान करना नहीं होगा। जिसने अपना जीवन स्वराज्यके लिए अर्पित कर दिया। ऐसा सोचनेवाले व्यक्ति देशबन्धुको नहीं जानते। उनकी नजरोंमें किसी भी भारतीय द्वारा किया गया कोई भी श्रेष्ठ कार्य स्वराज्यकी दिशामें एक कदम था। प्रत्येक सफल सामूहिक प्रयत्न स्वराज्यकी दिशामें एक बहुत बड़ा कदम है। हमें राजनैतिक सत्ता तो मिलेगी ही। हम उससे बहुत दिनोंतक वंचित नहीं रखे जा सकते। वह सत्ता चाहे जब प्राप्त होगी, होगी——अनेकों द्वारा समान

  1. लगभग २५०० रु॰ तत्काल इकट्ठे हो गये और ये रुपये इंस्टीट्यूटके सदस्योंकी तरफसे पहली किस्तके रूपमें गांधीजीको दिये गये।
  2. यह अपील मूलतः १-७-१९२५ के फॉरवर्डके देशबन्धु-विशेषांकमें प्रकाशित हुई थी।