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भाषणः देशबन्धुके श्राद्ध-दिवसपर

उद्देश्यके लिए किये गये परिश्रमके परिपक्व फलके रूपमें ही। कोषका चन्दा——विशेष करके यदि वह लाखों लोगोंसे मिलता है, फिर उस कोषमें एक-एक धेला करके ही धन क्यों न आया हो——इस बातका ही नहीं कि हममें सच्चा प्रेम है बल्कि इसका भी द्योतक होगा कि हममें संगठन करनेकी क्षमता भी है। इसलिए कोषके लिए दान देना ही फिलहाल देशबन्धुकी सेवाओंकी कद्र करनेका सबसे अच्छा तरीका है।

मो॰ क॰ गांधी

[अंग्रेजीसे]
हिन्दुस्तान टाइम्स, १४-७-१९२५
 

२००. भाषण : देशबन्धुके श्राद्ध-दिवसपर

कलकत्ता
१ जुलाई, १९२५

मैं आश्रममें अनेकवार प्रवचन देता हूँ, किन्तु देता हूँ अपने ही लोगोंके सम्मुख। वे मेरी बात समझते हैं और मुझे निभाते हैं। इसके अतिरिक्त, प्रसंग आनेपर मैं 'गीता'में से कुछ अंश उद्धृत करता हूँ, फिर भी मेरा भाषण धार्मिक प्रवचन नहीं कहा जा सकता। मेरे विचारसे धर्मका अर्थ है धर्मका आचरण। प्रवचनकी आवश्यकता हो सकती है; किन्तु प्रत्येक धार्मिक मनुष्य प्रवचन दे सके, ऐसा नहीं है। यद्यपि यह सच है कि प्रवचनकर्त्ताका जीवन धर्मनिष्ठ होना चाहिए।

मेरे लिए 'गीता' शाश्वत मार्गदर्शिका है। मैं अपने हर कार्यके लिए 'गीता'में से आधार खोजता हूँ और यदि वह आधार नहीं मिलता है तो मैं उस कार्यको नहीं करता हूँ या अनिश्चित रहता हूँ। इसलिए जब मैंने घबराहटके बावजूद बोलना स्वीकार किया है तब सोचता हूँ कि मुझे मृत्यु और जन्मके रहस्यपर कुछ कहना चाहिए। जब-जब मेरे कुटुम्बियोंकी या स्नेहियोंकी मृत्युका अवसर आया है, तब-तब मैंने 'गीता' का ही आश्रय ढूँढ़ा है। 'गीता' यही बताती है कि मृत्यु शोक करनेकी वस्तु हो ही नहीं सकती। यदि कभी मेरी आँखोंसे किसी समय आँसू निकले हैं तो वे अनिच्छासे ही; और उसका कारण है मेरी निर्बलता। जब मैंने देशबन्धुकी मृत्युका समाचार सुना तब मैं स्तब्ध हो गया और मेरी आँखोंमें आँसू आ गये। मैं इस बातपर विचार करता हूँ तो वह मुझे निर्बलताका ही परिणाम मालूम होता है। आइए, आज हम 'गीता' से कुछ आश्वासन प्राप्त करें।

मैंने बहुत बार कहा है कि 'गीता' एक महारूपक है। मैं नहीं समझता कि इसमें दो पक्षोंके युद्धका वर्णन है। जब मैंने जेलमें[१] 'महाभारत' पढ़ा तब मेरी यह धारणा और भी पुष्ट हो गई। मुझे तो 'महाभारत' स्वतः एक महाधर्मग्रन्थ मालूम

  1. यरवदा जेलमें।