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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

होता है। उसमें ऐतिहासिक घटनाएँ तो हैं; परन्तु वह इतिहास नहीं। हम सर्प-सत्र-जैसी कथाका शब्दार्थ करें तो हमें उससे सन्तोष कैसे हो सकता है? तब तो अन्धविश्वासोंसे हमारा दम ही घुटने लग जायेगा। कवि स्वयं डंकेकी चोट कहता है, मैं इतिहासकार नहीं हूँ। 'गीता'में हमारे हृदयके अन्दर चल रहे युद्धका वर्णन है और उस युद्धका वर्णन करनेके लिए लेखनी कितनी ही स्थूल ऐतिहासिक घटनाओंका उपयोग करती है; परन्तु उसका उद्देश्य तो है हमारे हृदयमें प्रकाश डालकर हमसे उस प्रकाशमें उनकी ऊहापोह करवाना। हम जब दूसरे अध्यायके अन्तमें आते हैं तब ऐसी शंका नहीं की जा सकती कि किसी ऐतिहासिक युद्धकी बात चल रही है। अर्जुनका स्थितप्रज्ञके लक्षण जाननेकी इच्छा प्रकट करना और भगवान्‌का युद्धमें प्रवृत्त अर्जुनको उन लक्षणोंको बताने लगना विचित्र मालूम होता है।

परन्तु मेरा विषय तो है आपको मृत्युका रहस्य बताना। यदि आप मेरी तरह ही यह मानते हों कि 'गीता' एक रूपक है तो आप 'गीता' के अनुसार मृत्युका रहस्य भी समझ सकेंगे।

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्वदर्शभिः॥२-१६

सारा रहस्य इस श्लोकमें भरा हुआ है। अनेक श्लोकोंमें बार-बार कहा गया है कि शरीर 'असत्' है। 'असत्' का अर्थ 'माया' नहीं, ऐसी वस्तु नहीं जो कभी, किसी रूपमें उत्पन्न न हुई हो, बल्कि उसका अर्थ है क्षणिक, नाशवान और परिवर्तनशील। फिर भी हम अपने जीवनका सारा व्यवहार ऐसा मानकर ही करते हैं मानो हमारा शरीर शाश्वत हो। हम शरीरको पूजते हैं और उससे चिपटे रहते हैं। यह सब हिन्दू धर्मके विरुद्ध है। यदि हिन्दू धर्ममें कोई बात सूर्यके प्रकाशकी तरह स्पष्ट रूपसे कही गई है तो वह है शरीरका और दृश्य पदार्थोंका असत् भाव। फिर भी हम जितना मृत्युसे डरते हैं और मरे हुओंके लिए जितना रोते-पीटते हैं, उतना शायद ही कोई अन्य धर्मावलम्बी डरते या रोते-पीटते हों। 'महाभारत' में तो उलटा यह कहा गया है कि रुदनसे मृत आत्माको सन्ताप होता है और 'गीता' इसलिए लिखी गई है कि लोग मृत्युको भीषण वस्तु न मानें। मनुष्यका शरीर प्रवृत्ति करते-करते थक जाता है और मृत्यु शरीरको दुःखसे मुक्त करती है। मैं ज्यों-ज्यों देशबन्धुके सतत प्रवृत्तिमय जीवनपर विचार करता हूँ त्यों-त्यों मुझे लगता है कि वे आज जीवित हैं। जब उनका शरीर था तब वे पूर्ण जीवित न थे, किन्तु वे आज सोलहों आने जीवित हैं। हमने अपने स्वार्थके कारण मान लिया है कि उनका शरीर ही महत्त्वकी वस्तु थी, जबकि हमें 'गीता' यह सिखाती है——और मैं प्रतिदिन यह अधिकाधिक अनुभव करता जाता हूँ कि अशाश्वत वस्तुके लिए की गई यह सब चिन्ता निरर्थक और व्यर्थका कालक्षेप है।

'असत्' का भावार्थ है कि असत्का अस्तित्व नहीं होता और जो सत् है उसका नाश कभी नहीं हो सकता। शेक्सपियरका यह कहना भारी भूल है कि मनुष्यका किया शुभ कर्म उसके साथ मिट्टीमें दब जाता है, और अशुभ ही संसारमें जीवित