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भाषण : देशबन्धुके श्राद्ध-दिवसपर

रहता है। शुभ और सत् ही नित्य होता है। संसार भलाई कर जानेवाली आत्माओंका ही नित्य स्मरण करता है। दुनिया असत् और अशुभको आसानीसे भूल जाती है और शुभका ही स्मरण रखती है। हम रामचन्द्रजीका उदाहरण ही लें। मैं तो रामको अवतार मानता हूँ। परन्तु मैं यह नहीं मानता कि जब वे सशरीर होंगे तब उन्होंने कोई भी दोष नहीं किया होगा। परन्तु आज हम उन्हें 'पूर्ण पुरुष' मानते हैं। हम कृष्णको भी पूर्णावतार मानते हैं। आज लाखों-करोड़ों हिन्दुओंमें एक भी मनुष्य ऐसा नहीं जो राम या कृष्णके दोष निकाले। इससे भी 'नासतो विद्यते भावो'——इस श्लोकका रहस्य प्रकट होता है——दुनियाने उनके शाश्वत शरीरका अर्थात् गुणोंका ही संग्रह किया। उनके अशाश्वत शरीर——दोष इत्यादि——का ज्ञान किसीको नहीं है। हम देशबन्धुका अनुकरण करना चाहते हैं। तब क्या हम उनके शरीरका अनुकरण करेंगे? क्या हम उनके शरीरको पूजते थे? यदि ऐसा होता तो क्या उनका प्यारा बेटा उनके शरीरका अग्निदाह कर देता?

अतः 'गीता' इस श्लोकमें पुकार-पुकारकर कहती है कि हम अपने जीवनमें सत्यको धारण करके जियें और माया, असत्य और पाखण्डका त्याग करें। वाणी प्रायः असत्य हो जाती है; वह पाखण्ड बन जाती है। क्रोध असत्य है, काम, मोह, मद आदि असत्य हैं। हमें इन तमाम सर्पोके विनाशके यज्ञका अनुष्ठान करना है। स्थूल सर्प तो बेचारा शरीरको ही कष्ट देता है; परन्तु ये सर्प तो हमारी रग-रगमें प्रविष्ट हो जाते हैं और उनसे हमारे आत्माको भी हानि पहुँचनेका भय उत्पन्न हो जाता है। परन्तु आत्माको हानि पहुँच ही नहीं सकती। वह तो अविनाशी है। यदि हम इस बातको समझ लें कि सत् क्या है तो हम जन्म-मृत्युका रहस्य भी समझ जायें। जिस प्रकार रसायन-शास्त्री कहते हैं कि मोमबत्तीके जलनेसे उसके किसी मूल तत्त्वका नाश नहीं होता है उसी प्रकार जब शरीर निष्प्राण होनेपर जला दिया जाता है तब उसका कोई तत्त्व नष्ट नहीं होता। जन्म और मृत्यु एक ही वस्तुकी दो दशायें हैं। हम अपने स्वजनोंकी मृत्युपर रोते-धोते हैं इसका कारण हमारा स्वार्थ ही है। मुझे उस दिन श्मशान-घाटपर उस भारी भीड़के चेहरेपर शोककी छाया न देखकर पहले तो चिढ़ मालूम हुई; मैंने मनमें कहा——इन लोगोंको कुछ भी होश नहीं है; इन्हें प्रसंगकी गम्भीरताका भी खयाल नहीं हैं——परन्तु पीछे मेरी समझमें आ गया कि वे ही सचाईपर थे। इस देहके छूटनेसे उनका स्वार्थ हत नहीं हुआ था; वे तो एक भव्य जीवनका सन्मान करनेके लिए ही आये थे——वे तो उनकी की हुई सेवाओंके साक्षी होनेके लिए और "धन्य है ऐसा जीवन! धन्य है ऐसा जीवन!" कहनेके लिए ही आये थे। हमारे शोककी अपेक्षा उनका आनन्द अधिक सच्चा और सार्थक था। गंगा-स्वरूप बासन्ती देवी, जिन्हें मैं श्री दासकी मृत्युके बाद देखनेपर पहले दिन पहचानतक नहीं सका था, धन्य हैं। उन्होंने तो मेरे सामने एक आँसूतक नहीं गिराया। हमें तो अपने मुखपर भी उदासी नहीं लानी चाहिए और विषाद भी नहीं करना चाहिए। हम तभी कह सकते हैं कि हमने शरीरकी क्षणभंगुरता समझ ली है। विवाह दो शरीरोंका नहीं होता। दो आत्माएँ शारीरिक भोग-विलासके लिए नहीं, बल्कि अपने भव्य विकासके