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मेरी अक्षमता

सम्बन्धी आरोपको तो मैं हजम कर जानेको तैयार था, हालाँकि वह मेरे एक प्रिय मित्रने ही लगाया है। उन्हें मेरी कीर्तिको धक्का पहुँचनेका बड़ा डर था। उन्होंने सोचा, इससे मुझे लोग मुसलमानोंसे डर जानेका दोषी ठहरायेंगे और क्या-क्या न कहेंगे। परन्तु मैं अपने इस विचारपर दृढ़ रहा कि पण्डितजीके प्रवेश-निषेधके सम्बन्धमें समाचारपत्रोंमें कुछ न लिखूँ। मुझे इस बातका जरा भी डर न था कि इससे पण्डितजीके मनमें मेरे बारेमें गलतफहमी होगी। और मैं जानता था कि पण्डितजीको मेरी छत्रछायाकी कोई आवश्यकता नहीं। दुनियावी सत्ता द्वारा जारी की गई सभी निषेध-आज्ञाएँ उनके लिए कोई चीज नहीं हैं। उनका तत्त्वज्ञान उनका सम्बल है। मैंने कितने ही कठिन अवसरोंपर उन्हें बहुत नजदीकसे देखा है। वे उन सभी अवसरोंपर अडिग रहे। वे अपने कामको समझते हैं और उसे करते हुए न अनुकूल समयमें फूल उठते हैं, न प्रतिकूल समयमें विचलित होते हैं। इसलिए जब मैंने उस निषेध आज्ञाके बारेमें सुना तो खूब हँसा। राजाओंके ढंग अनोखे ही हुआ करते हैं। मैं जानता था कि मैं 'यंग इंडिया' में चाहे जितना लिखूँ, श्रीमान् निजाम अपने फरमानको वापस लेनेको राजी न होंगे। यदि उनसे मेरी जान-पहचान होती तो मैं हैदराबादके नवाब साहबको सीधा पत्र लिखता और उनसे विनयपूर्वक कहता कि पण्डितजीपर रोक लगानेसे आपकी रियासतका कोई फायदा नहीं हो सकता; इस्लामका तो बिलकुल ही नहीं। मैं तो उन्हें यह भी सलाह देता कि यदि पण्डितजी हैदराबादमें आयें तो उनको अपना मेहमान बनाइएगा। मैं हजरत पैगम्बर तथा उनके साथियोंके जीवनसे ऐसी मिसालें भी पेश करता। परन्तु मुझे उनसे परिचय का सौभाग्य प्राप्त नहीं है। मैं जानता था कि पत्रोंमें लिखी बात शायद उनके कानतक पहुँचे भी नहीं। ऐसी अवस्थामें सिवा मौजूदा मनमुटावको बढ़ानेके उससे और कुछ हासिल न होता। और यदि मैं उस मनमुटावको घटा नहीं सकता तो बढ़ाना भी नहीं चाहता था; अतः मैंने चुप रहना ही उचित समझा। इस समय जो मैं लिख रहा हूँ इसका उद्देश्य उन हिन्दुओंको, जो मेरी बात सुनना चाहते हों, यह सलाह देना है कि वे इस घटनासे चिढ़ न उठें और इसे इस्लामके या मुसलमानोंके खिलाफ शिकायत करनेका आधार न बनायें। इस निषेधाज्ञाका मूल कारण निजाम साहबकी मुसलमानियत नहीं है। मनमानी कार्रवाई निरंकुश शासनपद्धतिका एक लक्षण ही है——फिर शासक हिन्दू हो या मुसलमान। देशी राज्योंको नष्ट करनेका प्रयत्न न करके हमें उनकी तानाशाहीको रोकनेका ही उपाय अवश्य सोचना चाहिए। वह उपाय है, प्रबुद्ध और प्रबल लोकमत तैयार करना। जिस तरह ब्रिटिश भारतमें यह कार्य आरम्भ हुआ है, उसी तरह वहाँ भी होना चाहिए। यहाँ देशी राज्योंसे स्वभावतः ज्यादा आजादी है; क्योंकि यहाँका शासनकार्य सीधा सम्राट् द्वारा होता है, और देशी राज्योंकी तरह सम्राट्के ताबेदारों द्वारा नहीं। इस कारण वे ब्रिटिश प्रणालीके दोषोंको तो अपने यहाँ ले लेते हैं; पर ब्रिटिश शासन अपने लिए हानिसे बचनेकी जो तदबीरें कर लेता है, उन्हें वे नहीं अपना पाते। इसलिए भारतके देशी राज्योंमें सुव्यवस्थाका आधार ज्यादातर राजाके चरित्र और अवसर-विशेषपर उसके मनकी मौज ही रहती है, वहाँ कोई विधान नहीं,