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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

या यों कहें कि देशी राज्योंकी सरकारको विनियमित करनेवाले विधान नहीं हैं। इससे हम इसी नतीजेपर पहुँचते हैं कि देशी राज्योंमें सच्चा सुधार तभी सम्भव है जब ब्रिटिश शासनप्रणालीका लौह नियन्त्रण ब्रिटिश भारतमें सुलभ अपेक्षाकृत अधिक स्वतंत्रताके वातावरणसे कुछ प्रभावित तो हो, और इस तरह उसमें कुछ ढिलाई तो आये। इस वातावरणको स्थापित करनेका श्रेय जनताकी अनुशासनबद्ध शक्तिको ही है। पर इसका अर्थ यह नहीं कि सब पत्रकारोंको अपनी जबान बन्द कर लेनी चाहिए। राज्योंके दोषोंका उल्लेख करना पत्रकारिताका एक आवश्यक अंग है। वह लोकमत उत्पन्न करनेका एक साधन भी है। हाँ, मैं यह जरूर कहूँगा कि मेरा क्षेत्र बहुत मर्यादित है। मैंने पत्रकारिताको पत्रकारिताकी खातिर नहीं अपनाया है, बल्कि जिसे मैंने अपना जीवनका ध्येय समझा है उसके सहायकके रूपमें अपनाया है। मेरे जीवनका ध्येय है——अत्यन्त संयमपूर्ण जीवन और संयत उपदेशके द्वारा सत्याग्रहके अद्भुत अस्त्रका प्रयोग सिखाना——सत्याग्रह, सत्य और अहिंसासे सीधा फलित होनेवाला व्यवहार है। मैं यह प्रत्यक्ष दिखलानेके लिए उत्सुक ही नहीं, अधीर हूँ कि जीवनकी अनेकानेक बुराइयोंको दूर करनेका अहिंसाके सिवा कोई उपाय नहीं है। यह एक ऐसा प्रबल द्रावक रस है जिसके द्वारा वज्र हृदय भी पिघले बिना नहीं रह सकता। इसलिए मेरी श्रद्धाका तकाजा है कि मुझे क्रोध या द्वेषसे प्रेरित होकर कुछ नहीं लिखना चाहिए। मुझे ऐसी कोई बात नहीं लिखनी चाहिए जो निरर्थक हो। मुझे लोगोंमें रोष उत्पन्न कराने-भरके लिए कोई बात नहीं कहनी चाहिए। पाठकोंको इस बातकी कल्पनातक नहीं हो सकती कि प्रति सप्ताह विषयों और शब्दोंके चुनावमें मुझे कितने संयमसे काम लेना पड़ता है। मेरे लिए यह एक अच्छी खासी तालीम है। इसके द्वारा मुझे अपने अन्तःकरणमें झाँकने और अपनी कमजोरियोंको जाननेका अवसर मिलता है। अकसर मेरा मिथ्याभिमान मुझे कोई तेज बात लिखने और कोई कड़ा विशेषण लगानेको प्रेरित करता है। यह एक बड़ी कठिन अग्निपरीक्षा है, पर साथ ही इन गन्दगियोंको दूर करनेकी बढ़िया मश्क भी है। पाठक 'यंग इंडिया' के पृष्ठोंको संवारे हुए रूपमें देखते हैं, और रोमाँ रोलाँकी तरह शायद यह भी सोचते हों कि 'यह बुड्ढा कितना नेक आदमी होगा!' तो फिर दुनिया इस बातको जान ले कि अपने भीतर मैं यह नेकी बड़ी सावधानी और प्रार्थनाके बाद ला पाता हूँ। और यदि इसे कुछ लोगोंने, जिनकी रायोंको मैं अपने हृदयमें मान देता हूँ, स्वीकार किया है तो पाठक इस बातको समझ लें कि जब यह नेकी मेरे लिए एक बिलकुल स्वाभाविक वस्तु बन जायेगी अर्थात् जब कोई भी बुरा काम करना मेरे लिए असंभव हो जायेगा और जब किसी तरहका कठोर या दर्पपूर्ण भाव, फिर वह क्षण-भरके लिए क्यों न हो, मेरे विचार-जगतमें नहीं आने पायेगा, तभी——केवल तभी मेरी अहिंसा दुनियाके लोगोंके हृदयोंको द्रवित कर पायेगी। मैंने अपने या पाठकोंके सामने कोई असम्भव आदर्श या अग्नि परीक्षा नहीं रखी है। यह तो मनुष्यका परमाधिकार और एक जन्मसिद्ध अधिकार है। हमने यह स्वर्ग खो दिया है तो हमें उसे फिर प्राप्त करना ही है। यदि इसमें बहुत समय लगे तो वह सारे