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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

पुरानेको भूल जाते हैं। उसी प्रकार जीवको नया घर मिल जानेपर पुराने घरकी यादतक नहीं रहती। ऐसा है मृत्यु और जन्मका खेल। इस स्थितिमें भय और शोकका कारण ही क्या है? मौतको मौत न समझते हुए महायात्रा समझना ही ज्यादा ठीक है।

इस महायात्रामें यदि हमें देशबन्धुकी आत्माको शान्ति देनी हो तो हमारे पास एक ही इलाज है। हम उनके जितने सद्गुणोंको अपने भीतर उतार सकें, उन सबको उतारें। उनके बहुत-से सद्गुण तो अवश्य ही उतारे जा सकते हैं। उनकी-जैसी अंग्रेजी चाहे हमें न आ सके, उन-जैसे वकील चाहे हम सब न बन सकें और कौंसिलमें काम करनेकी उनकी-जैसी शक्ति चाहे हममें न हो, परन्तु हमारे मनमें उनकी तरह देश-प्रेम तो हो ही सकता है। हम उनकी-जैसी उदारता सीख सकते हैं। उनके बराबर घनका दान हम चाहे न कर सकें, परन्तु यथाशक्ति देना ही बहुत देना है। विधवाके दिये एक ताँबेके छल्लेकी कीमत महाराजाके अपनी करोड़ोंकी सम्पत्तिसे दिये गये हजार रुपयोंकी कीमतसे ज्यादा है। देशबन्धुने खादी पहननेके बाद फिर खानगीमें या बाहर उसका त्याग नहीं किया। क्या हम खादी पहनेंगे? देशबन्धुने महीन खादी कभी नहीं माँगी। उन्हें तो मोटी खादी ही पसन्द थी। देशबन्धुने कानेका प्रयत्न किया था; जिन्होंने ऐसा नहीं किया है, क्या वे अब करेंगे?

अखिल भारतीय स्मारक

इस समय उनका स्मारक बनानेके लिए बंगालमें रुपया इकट्ठा किया जा रहा है। किन्तु क्या उनका कोई अखिल भारतीय स्मारक बनाये बिना काम चल सकता है? मैं यहाँ बंगालके स्मारकके लिए धनसंग्रह करनेमें व्यस्त हूँ, इसलिए मित्रोंसे परामर्श नहीं कर सका हूँ। किन्तु मैं स्वयं तो विचार कर ही रहा हूँ। यह काम किस प्रकार किया जाना चाहिए, इस सम्बन्धमें देशबन्धुका वसीयतनामा मेरे पास है। यह बंगालके वसीयतनामेकी तरह लिखित तो नहीं है; किन्तु है लिखित-जैसा ही। मैं इस सम्बन्धमें इस अंकमें विशेष नहीं लिखूँगा; किन्तु अगला अंक निकलनेसे पहले तो मेरी अपील[१] प्रकाशित हो चुकेगी।

पाठकोंको अपनी थैली खोलनेके लिए तैयार हो जाना चाहिए। चूँकि रुपया यथाशक्ति देना है, इसलिए घबरानेकी कोई जरूरत नहीं है। देशबन्धुने जो रुपया दिया वह किसी भयसे नहीं दिया था, बल्कि स्वेच्छासे दिया था। रुपया देनेमें उन्हें हर्ष होता था। उन्होंने अपनी लाखोंकी वकालत एक क्षणमें छोड़ दी थी। ऐसा उन्होंने दुःखी मनसे नहीं, बल्कि इसलिए किया कि [देशकी उपेक्षा करके] वकालत करना उन्हें बर्दास्त नहीं हुआ। इसलिए मेरे सुझावसे किसीको घबराना नहीं चाहिए। देशमें ज्यों-ज्यों जागृति होती जाती है और जब-जब आकस्मिक संकट आते हैं त्यों-त्यों और तब-तब लोगोंको अपनी कमाईमें से थोड़ा-बहुत हिस्सा अवश्य देना चाहिए और उसके लिए तैयार रहना चाहिए। प्रेमका अर्थ केवल आँसू बहाकर बैठ रहना नहीं

  1. देखिए "अपील : अखिल भारतीय देशबन्धु-स्मारकके लिए", २२-७-१९२५।