पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 27.pdf/३८३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३५१
टिप्पणियाँ

है। जबानी जमा-खर्च करना भी प्रेम नहीं, झूठी बकवास है। प्रेम तो मौन रहकर कुछ देने और कुछ करनेमें है। पितृभक्त पुत्र भाटकी तरह पिताके गुणोंका गान नहीं करता रहता; बल्कि पिताकी सम्पत्तिको सँभालता, सुधारता और बढ़ाता है। पिताकी सच्ची सम्पत्ति तो उसके सद्गुण हैं। वह उनको अपने जीवनमें उतारकर अपने पिताकी और अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाता है। उसी प्रकार यदि हम देशबन्धुके सच्चे उत्तराधिकारी हैं तो हमें उनकी विरासतको सुरक्षित रखनेके लिए यथाशक्ति धन देना चाहिए।

कलकत्तेके गुजराती

गुजरातसे तो मेरे घनिष्ठ सम्बन्ध हैं। मुझे कड़वी बातें कहनेकी टेव तो है ही, और उस टेवको हिन्दुस्तानने सह लिया है। किन्तु ज्यादासे-ज्यादा कड़वी बातें तो मैं गुजरातियोंसे ही कहता हूँ। वे उनका अर्थ उलटा नहीं समझते और मेरी कड़वी बातोंको वैद्यकी दवाओंकी तरह आरोग्यवर्धक मानकर मुझसे और भी अधिक प्रेम करते हैं। ऐसा अनुभव मुझे गत सप्ताह कलकत्ताके गुजरातियोंका हुआ। उन्होंने देशबन्धुके निधनपर शोक प्रकट करनेके लिए एक सभा की थी।[१] उन्होंने उसमें मुझे बुलाया और सभापति बनाया था। कार्यकर्ताओंने मुझे यह वचन दिया था कि वे धनसंग्रह भी करेंगे। मैंने देखा कि उन्होंने धनसंग्रह नहीं किया था। इस कारण मुझे दो कड़वी बातें कहनी पड़ीं। शोकसभा तो एक ही अच्छी लगती है, अनेक नहीं। शोक सभा मृत्युके दिन की गई थी। अब पहली जुलाईको देश-भरमें होगी। तब बीचमें दूसरी और जातीय सभा करनेका हेतु तो एक ही हो सकता है कि उसमें कोई रचनात्मक कार्य किया जाये या धनसंग्रह किया जाये। इस समय बंगालके गुजराती और मारवाड़ी आदि कुछ ऐसा ही कार्य करनेमें जुट सकते हैं। मैंने उनसे यह बात कही। इससे गुजरातियोंको रोष नहीं आया; किन्तु उन्होंने मेरी बातका मर्म समझ लिया और जिस नाट्यशालामें सभा हो रही थी उसीमें ऊपरकी गैलरियोंसे रुपयोंकी वर्षा होने लगी और तत्काल ६,००० से ज्यादा रुपया इकट्ठा हो गया। यदि उसमें कोई कम रुपया देता था तो उसे टोकनेवाले लोग भी तैयार थे। मुझे कहा गया है कि बहुत-से लोगोंने जितना दे सकते थे, उतना रुपया नहीं दिया है। मैं चाहता हूँ कि यदि ऐसी बात हुई हो तो वे लोग भूल सुधार लें। इस टिप्पणीका उद्देश्य तो कलकत्ताके गुजराती भाइयोंका आभार मानना ही है।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, ५-७-१९२५
 
  1. देखिए "भाषण : कलकत्ताको शोकसभायें", २६-६-१९२५।